पटना की कोई शाम मनहूस नहीं होती। वे दिन भी थे, जब दोस्तों ने थाम लिया- वरना हम गंगा के आसपास अकेले भटकते उसके पानी में हमेशा के लिए उतर जाते। प्रेम के एकाध किस्सों में अकेले रह जाने के बाद कमरे का अंधेरा फैल भी गया, गिलास में शराब भर भी गयी- लेकिन उदासी का कोई ऐसा सिलसिला नहीं चला, जो विरह का कवि बना दे।
पुनाइचक में एक छोटा सा कमरा था। पहले पहलवान लॉज, फिर एक बड़े मकान के ग्राउंड फ्लोर का कमरा। उस कमरे को हमारे एक दोस्त ने किराये पर ले रखा था, बाद में मुझे साथ में रखा और मज़े में खाना-वाना भी खिलाता रहा। वो कंपटीशन की तैयारी करता था, अब पटना से सटे मसौढ़ी में डीएसपी है। तबादला होता रहता है। वो कमरा थोड़े दिनों बाद संस्कृति-राजनीति की बतकही से गुलज़ार रहने लगा। मेरे पैर पार्टी-पॉलिटिक्स में पहले से ही थोड़े फंसे थे।
नवीन का आना-जाना उन्हीं दिनों शुरू हुआ। वे फिज़िक्स पढ़ा करते थे। साइंटिस्ट बनने के ख़्वाब देखते थे और पीओ की तैयार करते थे। पटना में लड़के आमतौर पर ऐसा करते हैं। लखनऊ, भोपाल और दिल्ली के मुखर्जी नगर इलाक़े में भी लड़के यही करते हैं। कोई विकल्प नहीं है। ख़्वाब और नियति के बीच उदास सड़कों पर चलना और कभी कभी यूं ही मुस्करा देना। क्योंकि मैंने कभी कंपटीशन वगैरा में दिलचस्पी नहीं ली और अख़बार की सस्ती नौकरियों में जी जमने लगा- तो थोड़े मौलिक भी हो गये। दोस्ती में वक्त बर्बाद करना इसी मौलिकता का सृजनात्मक पहलू था।
कई बार पूरी दोपहर पटना की सड़कों पर पैदल चलते हुए शाम को उस कमरे में लौट आते थे। वो कमरा अब किसी एक का रह नहीं गया था। सबके दावे हो गये थे और कई बार तो अपनी प्रेमिकाओं को लेकर कोई आ जाता और कहता- थोड़ा टहल आओ। इसकी मार सबसे अधिक पड़ी धर्मेंद्र सुशांत को, जो अब दैनिक हिंदुस्तान के दिल्ली संस्करण में उपसंपादक हैं। कमरे की चाबी उन्हीं के पास रहती थी। मां के इंतक़ाल के बाद बाबूजी और बहनें मेरे साथ रहने आ गयी थीं। हमने किराये का एक अलग घर ले लिया।
उसी कमरे में पहली बार मैंने अपनी पत्नी के हाथ छूए थे, और होंठ भी। तब वो सिर्फ एक ख़ामोश लड़की थी, जो कभी-कभी बोलती थी।
नवीन का राजनीतिक रूपांतरण होने लगा था। वे सीपीआई एमएल लिबरेशन की तरफ भी झुक रहे थे और सीपीआई एमएल पीपुल्स वार (अब माओइस्ट) की तरफ भी। उस कमरे में रामजी राय भी आते थे और अमिताभ भी। दोनों अपनी अपनी तरह से हमसे संवाद करते थे। रामजी राय के विचार जैसे भी लगें, अमिताभ के जनवादी गीत हमें पसंद आते थे। सीपीएम, सीपीआई सीन में कहीं नहीं था, जबकि इन पार्टियों के कॉमरेड भी उस कमरे में आते-जाते थे। आख़िरकार हम सब लिबरेशन के पाले में चले गये।
नवीन तो अब पार्टी वर्कर हो गये हैं। उसी मसौढ़ी में, जहां सुशील फिलहाल डीएसपी है। ये उन दोनों का संयोग है। हम तो बस इतना ही याद करते हैं कि दोनों पटना में पुनाईचक के उस कमरे में हमसे अपना मन साझा करते थे। नवीन की आदत थी, वे कहीं से भी आते, एक कोने में पसर जाते। उनकी पतली काया एहसास भी नहीं होने देती थी कि वे कमरे में हैं। अंधेरी रात में जब बहस फुसफुसाहटों और भनभनाहटों में तब्दील होने लगती, वे मच्छड़ मारते हुए उठते। कहते, सोने नहीं दोगे तुमलोग। कई बार बीच बहस में वे कोई सवाल करते और फिर सो जाते। लेकिन बहसबाज़ उनका जवाब दूसरों को देते रहते।
नवीन की शख्सीयत में अतीत ज़्यादा घुला हुआ है। वे उस मीठापुर को याद करते हैं, जहां उनका बचपन बीता। मीठापुर पटना जंक्शन के पीछे का पुराना, पिछड़ा हुआ इलाक़ा है- जिसने कुछ नामी गुंडे पैदा किये हैं। कुछ शास्त्रीय गीतों को भी वे ज़बान पर चढ़ाये रखते थे, जो कभी किसी सिलसिले में सुन लिया था। उनके पास गायकों जैसी आवाज़ नहीं थी और रियाज़ वाली सफ़ाई तो बिल्कुल नहीं थी। लेकिन सुर था। प्रेम में पलटी खाने के पहले वे अक्सर सुनाया करते थे- बरसन लागी सावन बुंदिया, राजा तोरे बिन लागे न मोरा जिया।
ये गीत मेरे चाचा भी गाते थे, जो अब बेतिया में रहते हैं।
पटना जैसे शहरों में नौजवानी जिन हालातों में बीतती है, उन्हें बरसन लागी जैसा गाना बेहतर अभिव्यक्त करता है। हम मूलत: पटना जैसे शहरों के लोग अब भी वहीं के हैं। यही वो बात है कि तमाम लोगों के बिना जी लगने के बावजूद बरसन लागी सुनना अच्छा लगता है। आप भी सुनें और थोड़ी देर के लिए पटना जैसे शहरों के हो जाएं।
Wednesday, November 7, 2007
पटना में विरह के वे बरसते हुए दिन!
Posted by Avinash Das at 8:13 AM
Labels: स्मृतियों की अनुगूंजें
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7 comments:
सुन लिया-बरसन लागी सावन बुंदिया और हो लिये पटना के. बढ़िया लगा संस्मरण पढ़ना.
दीपावली मंगलमय हो, बहुत शुभकामनायें.
मस्त है जी बरसन लागी..क्या टप्पा है..आभार.
दीपावली मंगलमय हो, बहुत शुभकामनायें.
शानदार बस यही शब्द निकलते है भाइ दिल से
shandar yadein
बहुत मज़ा आया-शुक्रिया.
हमें याद है जब रांची में मेरे दोस्त आकर मुंहचोदी करने लग जाते तो मेरे मुंह से एक ही शब्द निकलता। साले तुलोगों ने कमरे को रंडीपाड़ा बना दिया है लेकिन आपके कमरे से तो महान विभूतियों का जन्म हुआ। हमारे तो सारे दोस्त साइंस की अकड़ छोड़-छोड़कर रेलवे-बैंकिग में आ गए। अच्छा लगता है दिल्ली मे भी आकर एक कंधे पर जिम्मेवारी और दूसरे कंधे पर बिहार की यादों को ढोना।
भैया, आपके बहुत सारे पटना के दोस्तों को तो या तो नाम से या चहरे से पहचानता ही हूँ और उनके बारे मे पढ़ कर अच्छा लगता है..
मगर सबसे अच्छा तो आपकी कहानियाँ पढ़ कर लगता है.. वे कहानियां जो मुझसे अछूती थी...
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