दरभंगा महाराज के महलों-क़िलों के बीच बड़े भाई तारानंद वियोगी के साथ झमकते हुए चलते थे। सारंग जी और स्नेही जी भी साथ रहते थे। उनके पास उल्लास और यात्रा के दर्जनों क़िस्से थे। मुंगेर से लेकर बागडोगरा तक। उनकी एक मैथिली कविता है, जिसका क़रीब दशक भर पहले मैंने हिंदी में अनुवाद किया था। बागडोगरा में ब्रह्ममुहूर्त। यानी बागडोगरा में सुबह। नंदीग्राम में सीपीएम की गुंडागर्दी का शिकार होते आम नागरिक, आंदोलनकारी इतिहास चक्र के उस ग्रामवृत्त की कहानी दोहरा रहे हैं, जिसे नक्सलबाड़ी कहते हैं। बागडोगरा नक्सलबाड़ी के पास है। मैथिली के नावेलिस्ट-कहानीकार, हमउम्र प्रदीप बिहारी के साथ सफ़र में वियोगी जी ने बागडोगरा में सुबह की चाय पी। कविता उन्हीं दिनों की है।तुम्हारी बनायी चाय अतिशय तीखी लगती हैबिहार में रहते हुए बंगाल से दोस्ती नहीं हुई। यह संयोग ही था। लेकिन बंगालियों से दोस्ती रही। बंगाली नाटक से थिएटर का सफ़र शुरू हुआ- बोल्लभपुरेर रूपकोथा। फिलहाल एक रवींद्र संगीत आपके लिए, जो मुझे बहुत-बहुत-बहुत प्रिय है... मेघ बोले छे जाबो जाबो...
ऐ बच्चा, होरीपोदो राय!
टूटा नहीं अब तक नशा। झम्प अब भी बाक़ी है।
लगता है
या तो वातावरण में ही कुछ ज़्यादा नमी है
या हमीं में कुछ पात्रता की कमी है।
और तुम भी तो लल्लू के लल्लू रहे प्रदीप!
जाने कितनी बार आये-गये इस इलाक़े में,
लेकिन अनचीन्हा ही रहा मौसम का मिज़ाज।
अंधेरे से जो बनते हैं बिंब घनेरो भाई!
वे सब क्या सिर्फ मृत्यु के प्रतीक हुआ करते हैं?
अमलतास के नवीन सुपुष्ट किसलयों पर झूला झूलने लगे हैं बतास।
नीम के गाछ पर चुनमुनियों का बसेरा अकुलाने लगा है।
उस फुदकी चिड़ैया को देखो - किस तरह अचरज किये जा रही है!
दौड़ यहां, भाग वहां
मुझे तो लगता है एकबारगी
आह्लाद से जान न निकल जाए इस पगली की।
हां, कौआ नहीं बोला अब तक -
यही कहोगे न?
कौआ करे घोषणा - तभी मानूं भोर
इसी कुबोध से जनमता है
क्रांति में चिल्होर।
देखो-देखो प्रदीप!
पौ फटने का संकेत दे रहा है क्षितिज सीमांत।
अब लाइन होटल की इस खाट से उठो प्रदीप
सुबह होने को आयी, देखो
चलो अब हम चलें
नक्सलबाड़ी कुछ ही दूर है यहां से!
|
1 comment:
कविता अच्छी लगी !
Post a Comment