अब ऐसा भी नहीं है कि एक शहर हमारी ज़िंदगी से बाहर हो गया है। हम कभी भी वहां जाकर रहना शुरू कर सकते हैं और जक्कनपुर में गौरिया मठ के सामने आलू पकौड़ी और हरी चटनी के आसपास शाम बिता सकते हैं। जंक्शन के बाहर महावीर मंदिर से सटी मस्जिद की दूसरी तरफ पहली मंज़िल वाली खोली में लिट्टी और बैंगन की चटनी में मूड़ी गोड़ना किसी को भी अच्छा लगेगा।
एक बार रिपोर्टिंग के सिलसिले में बक्सर गये थे, तो वरुणा हॉल्ट के पास कोई ट्रेन पटरी से उतर गयी। घंटों आगे-पीछे की ट्रेन बक्सर और डुमरांव स्टेशन पर खड़ी रही। हम डुमरांव में फंस गये, जिसका अहाता थोड़ी ही देर में सिगरेट में घुले इंतज़ार के घुओं से भर गया। भूख लगी, तो बाहर निकल कर हमने लिट्टी खायी। घी में डूबी हुई लिट्टी, एक मिर्च और घुघनी ने जो तसल्ली दी, उसका ज़िक्र आज भी देखिए- हुलस कर निकल रहा है।
आरा में भी लिट्टी मिलती है। हमारे एक दोस्त के ब्याह में गये, तो तेल की गंध ने ऐसा घेरा कि बरसों के बीमार जैसे लगने लगे। बाहर निकल कर सूखी लिट्टी की दुकान में बैठ गये। लिट्टी का पूरा कल्चर पुराने मध्य बिहार में ही रहा है। सासाराम और कैमूर ज़िले में हमने लिट्टी खाकर संतोष की रात बितायी है।
रांची में हमारी एक दोस्त अनुपमा है, जो यूपी के गाज़ीपुर की रहने वाली है। गाज़ीपुर में अफीम की खेती बड़े पैमाने पर होती है और कैमूर से एक रास्ता गाज़ीपुर की ओर जाता है। लिट्टी वहां के परिवारों में भी आम है। एक शाम अनुपमा के पिताजी ने घर के आंगन में लिट्टी के लिए आग जलायी और अपने हाथों से लिट्टी बना कर हमें खिलाया। शहरों में बसे लोग, जो कहीं अपने गांवों से आये हैं, खान-पान में पुराना बर्ताव ही बरतते हैं।
पटना में विधायक क्लब के पास घी में लपेटी गयी सत्तू की रोटी के लिए काफ़ी इंतज़ार करना होता था, लेकिन हम इंतज़ार करते थे। फिर भी ऐसा नहीं है कि पटना में रहने की ख्वाहिश में स्वाद सबसे ज़रूरी कारक है। वहां रहना आसान है। पैदल चलना आसान है। मुख्यमंत्री, नेताओं और नवधनाढ्यों की दुनिया में झांकना आसान है- क्योंकि मौर्यालोक कांप्लेक्स की शाम सबके लिए एक साथ रोशन है और जहां पंद्रह रुपये में हाफ प्लेट मस्त चाउमीन चिकेन ग्रेवी से साथ मिल जाता है। यहीं एक पत्रिका की दुकान पर कुछ पत्रकार जुट जाते हैं, जो दारू पीने के लिए जुगाड़ खोजते हैं। चालीस रुपये में रम का नीप नौ-दस बजते-बजते उग आता है और पत्रकारिता के पटनिया परिदृश्य की परतें भी उघड़ने लगती हैं।
इसी कांप्लेक्स के सामने से एक रास्ता निकलता है, जिसमें पहली बायीं मोड़ में घुसने पर सामने पटना म्युज़ियम दिखता है। म्युज़ियम के मैदान में अंग्रेज़ों के ज़माने की बड़ी सी तोप रखी है और कई सारे पेड़ और कई सारे चबूतरे हैं, जो पतझड़ के मौसम में इश्क़ का एहसास देते हैं। आर्ट कॉलेज के जोड़े तो चित्र बनाने के नाम पर ऐसे ही घुस आते हैं, दूसरे आम जोड़े भी दो रुपये का टिकट लेकर पूरा दिन यहां बिताते हैं।
मौर्यालोक कांप्लेक्स के पास ही डाक बंगला चौराहे से अक्सर कोई जुलूस निकलता है और पुलिस की बड़ी गाड़ी जुलूस में शामिल लोगों को उठाती है और दानापुर के किसी स्कूल के अहाते में ले जाकर छोड़ देती है। वहां चूड़ा और गुड़ मिलता है और फिर शाम को वही गाड़ी बेलीरोड के किसी स्टॉप पर लाकर छोड़ देती है।
गांधी मैदान में आल्हा-ऊदल गाने वाला एक कलाकार रोज़ महफिल जमाता है और गुप्त रोगों से निज़ात दिलानेवाली दवाइयों का कारीगर ऊंची आवाज़ में चिल्लाता है। इसी मैदान में मोना सिनेमा वाले कार्नर पर रंगकर्मियों ने सफदर हाशमी रंगभूमि बना रखी है, जिस पर अक्सर नुक्कड़ नाटक होता है। लोग देखते हैं और डायलॉग की हर ऊंची टेक पर ताली बजाते हैं।
इसी पटना में पुनाइचक वाले कमरे में, जो समन्वय के नाम से जाना जाने लगा था, नवीन अक्सर एक गीत छेड़ते रहे हैं- झूला किन्ने डाला रे, अमरइयां...
जो सचमुच गायक नहीं बनना चाहता और कोशिश करके जिसने सुर की क़ाबिलियत भी नहीं हासिल की है, गीत उसकी ज़िंदगी का भी हिस्सा कैसे होती है- नवीन इसकी मिसाल हैं। मैंने तो थिएटर भी किया है। गाने का रियाज़ भी। हारमोनियम भी सीखने की कोशिश की है- लेकिन मेरा सुर पटरी से उतर जाता है। नवीन के साथ ऐसा कुछ भी नहीं है, फिर भी वे गाते हैं तो लगता है, लय उनकी शख्सीयत का हिस्सा है।
झूला किन्ने डाला रे, अमरइयां भी मुझे नेट पर मिल गया और इसके साथ ही पटना और नवीन को याद करने का एक बहाना भी। ये पहला गीत थोड़ा कम ड्यूरेशन का है, जो उमराव जान में इस्तेमाल हुआ है और सिंगर कोई अननोन आर्टिस्ट है।
और ये दूसरा गीत नैय्यरा नूर ने गाया है, जो बड़े ड्यूरेशन का है।
क्या बात है भैया.. आप तो मोहल्ला छोड़ कर दिल्ली दरभंगा एक करने पर तुले हुये हैं और कर भी रहे हैं.. वैसे आपका लिखा हुआ पढना मुझे बहुत ही अच्छा लगता है सो अच्छा ही किया जो मोहल्ला दोस्तों के नाम करके यहां आ गये.. मैं कल ही पटना से लौटा हूं और संयोग से गौरया मठ के पास से भी गुजरा था, आपके घर जाने वाली गली को देखकर आपका घर भी याद आया और बाबूजी भी.. खैर आगे बढना ही जीवन है सो आगे बढते रहना चहिये, पर कभी-कभी पीछे के जीवन पर भी एक नजर डालना चाहिये जो आप आज-कल कर रहे हैं..
8 comments:
आपके संग संग पटना और बिहार घूम लिये. बेहतरीन लिखा है.
गीत तो खैर हमारी पसंद का ले ही आये हैं.
आप एवं आपके परिवार को दीपावली की शुभकामनाएं।
नैय्यरा नूर , की आवज़ मे ये गीत पहली बार सुना
सुन्दर प्रस्तुति…बहुत शुक्रिया ,अविनाश जी
आपके समस्त परिवार जनोँ को दीपावली की शुभ कामनाएँ -- सुँदर गीत सुनवाने का शुक्रिया -
स स्नेह, लावण्या
क्या बात है अविनाश.. बहुत अच्छा लिख रहे हो.. जारी रहे..
वाह अविनाश जी, पहला अंश तो ग़ज़ब का है ही । फिर नैयरा नूर की आवाज़
उफ़ यूं लगा जैसे अभी मुंबई छोड़ के 'घर' के लिए निकल पड़ें ।
क्या बात है भैया.. आप तो मोहल्ला छोड़ कर दिल्ली दरभंगा एक करने पर तुले हुये हैं और कर भी रहे हैं.. वैसे आपका लिखा हुआ पढना मुझे बहुत ही अच्छा लगता है सो अच्छा ही किया जो मोहल्ला दोस्तों के नाम करके यहां आ गये..
मैं कल ही पटना से लौटा हूं और संयोग से गौरया मठ के पास से भी गुजरा था, आपके घर जाने वाली गली को देखकर आपका घर भी याद आया और बाबूजी भी..
खैर आगे बढना ही जीवन है सो आगे बढते रहना चहिये, पर कभी-कभी पीछे के जीवन पर भी एक नजर डालना चाहिये जो आप आज-कल कर रहे हैं..
स्मृतियां आदमी की जड़ों का तरल रूप हैं .
नय्यरा नूर को सुनकर आनन्द आया.. अविनाशजी संस्मरण भी आपका गज़ब लगा, नय्यरा को सुनाने का शुक्रिया..
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