बुलाकी साव से मेरी दोस्ती का दिलचस्प किस्सा है। पड़ोस के आठ गांवों (अठगामा) में उस जैसा अरिपन बनाने वाला कोई नहीं था। हालांकि यह औरतों के हिस्से में आने वाली विशेष चित्रकला है - लेकिन बुलाकी साव ने इसी कला में विशेषज्ञता हासिल की थी। वह अक्सर मुझसे कहता था कि मैं दरअसल स्त्री हूं। ईश्वर की किसी ग़लती से पुरुष जाति में पैदा हो गया। बहरहाल, मेरे आंगन में जब भी कोई शुभ काम होता था, बुलाकी साव को बुलाया जाता था। वह पिठार (पिसे हुए चावल का बारीक घोल) से घर के हर दरवाज़े पर फूल, पत्ती, चिड़िया, मछलियों का ख़ूबसूरत संसार रच देता था। उस वक्त मेरी उम्र दस बारह साल की रही होगी। जब बुलाकी साव अपनी कलाकारी में मगन रहता था, मैं उसके पीछे बैठ जाता। मिट्टी पर पिठार की रेखाएं उकेरते हुए वह एक गीत गुनगुनाता था। शब्द मेरी पकड़ में नहीं आते थे, लेकिन धुन दिल पर धम धम की तरह बजती थी। अच्छा लगता था। थोड़ा बड़े होने और शब्दों से दोस्ती हो जाने के बाद अक्सर मैं उससे वह गीत सुनता था। वह एक फिल्मी गीत था और उसके बोल थे - "दिल मेरा एक आस का पंछी, उड़ता है ऊंचे गगन पर; पहुंचेगा एक दिन कभी तो, चांद की उजली ज़मीं पर।" बुलाकी साव चांद की उजली ज़मीन पर पहुंचा या नहीं - नहीं मालूम, पर मैंने अपनी आंखों से देखा कि उसने किसी भी आंगन के कोने-अंतरे में अरिपन बनाना छोड़ दिया। इस काम के बदलेे उसे हर घर से तीन सेर अनाज मिलता था। महंगाई जब बढ़ी, तो उसने तीन सेर की जगह पांच सेर अनाज की मांग की। मेरे एक चाचा ने उसे बुरी तरह लताड़ा और दो तीन थप्पड़ भी लगाये। वह दिन और मेरे दरभंगा छोड़ने का आख़िरी दिन, मैंने कभी बुलाकी साव को अरिपन बनाते नहीं देखा। उसके पास उदास कविताएं भी थीं। नदी के पार वह संसार जिसमें रास्ते हैं फूल-परियों तक पहुंचने के दिखाई दे रहे हैं पर नहीं है नाव कोई भी उजाले मर रहे हैं शाम की चट्टान से लड़ कर परिंदो! काम से लौटो चलो अब गांव कोई भी बकरियां गाय पारा बैल सब खूंटे के आशिक़ हैं उन्हें मालूम है जन्नत से दोज़ख़ और फिर दोज़ख़ से जन्नत का पता लेकिन उन्हें तो बीच में बस टूंगते रहना है जंगल-झाड़ के सूखे-हरे पत्ते हमें मालूम है हम तैर सकते हैं मगर पानी पे परियों ने लगा रखा है कांटों का बड़ा बाड़ा ये परियां कौन हैं? सुख के सितारे झिलमिलाते से! हमें ग़म का लबादा ओढ़ कर जीना है मरना है कि हम तो आदमी हैं इश्क हमको मार देता है!!!
Sunday, May 22, 2016
बुलाकी साव की सातवीं कविता
Posted by Avinash Das at 10:23 PM
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