मेरी प्रिय कविता। एक दिन बुलाकी साव देर रात गये आया। मैं दालान पर सोया था। गांव में चारों तरफ सन्नाटा था। चांदनी रात थी, तो मैं देख पाया कि बुलाकी साव पसीना पसीना है। वह अपने गांव से नंगे पांव दौड़ते हुए आया था। छह दिसंबर 1992 के बाद की कोई रात थी। हम दोनों आधी रात को बागमती नदी के किनारे गये, जहां आम के हजारों पेड़ थे। कहते हैं कि रात को वहां भूत-प्रेत नाचते हैं। मैं डर रहा था, लेकिन बुलाकी साव निर्भय था। उसने कहा कि भूत-प्रेत शहर में उत्पात मचा रहे हैं। तुम मेरी नयी कविता सुनो। और वह पागलों की तरह नाचते हुए गाने लगा। मुझे आज भी नृत्य की उसकी लय और कविता का उसका छंद अच्छी तरह याद है। सुनिए ज़रा... लोटा था सोंटा था बाबा थे धोती थी कुर्ता था चकचक यादों का मोरपंख दिल में कुछ धक धक बांस की कलम थी और स्याही था नीला कविता थी कुनबा था मन गीला गीला शहर में सबेरा है सूरज को खोजो नीरज भी नहीं दिखा नीरज को खोजो सात बरस पहले गया था कमाने पहले बरस उसने भेजे चार आने डाक घर बंद है और बंद है दुकानें दंगाई सड़कों पर सत्ता को पाने तीन बलात्कार हुए, आठ गयीं जानें हम खुद को मानें या दुनिया को मानें कवि था बुलाकी और बाबा थे साव जी कविता में क्यों खाते रहते हो भाव जी गलियों में दंगे थे, नाक में पोंटा था रामधनी की बेटी का लंबा झोंटा था लोटा था सोंटा था कवि था बुलाकी और बाबा थे साव जी
Sunday, May 15, 2016
बुलाकी साव की दूसरी कविता
Posted by
Avinash Das
at
3:56 AM
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