दरभंगा में एमएल एकेडमी था, जहां थोड़ी स्कूली पढ़ाई मैंने की थी। उसके गेट पर गणेशी अपना ठेला लगाता था और भूंजा बेचता था। सारे बच्चों को उसने भूंजा खाने का चस्का लगा दिया था। वैसा भूंजा इस ब्रह्मांड में शायद ही कोई बनाता होगा। चार आने में एक ठोंगा। बाद में बड़े होकर भी हम गणेशी का भूंजा खाने जाते थे। तब भी एक रुपये में एक ठोंगा। ऐसे ही, एक दोपहर हम थलवारा-हायाघाट के बीच हुई भीषण रेल दुर्घटना के मरीज़ों का हालचाल लेकर डीएमसीएच से लौट रहे थे, तो गणेशी के पास रुक कर भूंजा बनवाने लगे। तभी पीछे से किसी ने कंधे पर हाथ रखा। वह बुलाकी साव था। मैंने दो ठोंगा भूंजा बनवाया और खाते हुए बंगाली टोला की तरफ निकल आये। वीणापाणि क्लब के बाहर नन्हें से मैदान में बैठ गये। अचानक बुलाकी साव ने भूंजा का बड़ा सा फक्का मुंह में ठूंसा और उठ कर नाचने लगा। ज़ोर ज़ोर से भूंजा चबाते हुए गाने लगा। वह गीत अब भी याद है। जो याद रह जाए और जिसे कभी न भूल पाओ, वही श्रेष्ठ और प्रिय कविता हो सकती है। इस तरह बुलाकी साव की यह कविता भी मेरी बहुत प्रिय कविता है। जाओ फिर आओ फिर जाओ फिर आओ किराने के खाते में चीनी लिखवाओ नमक मोटा मोटा उधारी मंगवाओ पुराना है गीत मगर दाल रोटी गाओ किसी को भी देखो, किसी को भी चाहो किसी एक लड़की से फिर धोखा खाओ किसी को भी पकड़ो दुलत्ती लगाओ था हिंदी में गाना, तो इंग्लिश में वाओ कहां से चला था कहां तक गया वो ये लेनिन वो माओ ये तोजो वो ताओ ज़रा से पसीने में मुक्ति कमाओ जाओ फिर आओ फिर जाओ फिर आओ
Monday, May 16, 2016
बुलाकी साव की तीसरी कविता: ये लेनिन वो माओ
Posted by Avinash Das at 8:12 AM
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