Saturday, November 17, 2007

हरा हरा नेबुआ कसम से गोल गोल

तब इंदिरा गांधी पर गोली नहीं दागी गयी थी। साठ के दशक में गरज कर बसंत का वज्रनाद सत्तर के दशक में ठंडा पड़ चुका था। इमर्जेंसी की अदाओं ने कांग्रेस को गिरा कर जनता सरकार की हवा चलायी, लेकिन वो भी फुस्‍स हो गयी और फिर से कांग्रेसी राज कायम हो गया। राज-काज-समाज के इस ड्रामे में हम पैदा हुए और समझने लगे कि यही मुल्‍क है- जहां कर्पूरी ठाकुर के बाद जगन्‍नाथ मिश्रा आएंगे, जगन्‍नाथ मिश्रा के बाद लालू प्रसाद आएंगे और लालू प्रसाद के नीतीश कुमार आएंगे। लेकिन इनक़लाब कभी नहीं आएगा।

इनक़लाब आया, जब कोकशास्‍त्र के पहले सचित्र पन्‍ने हमारी ज़‍िंदगी में आये। गांव के एक भाई छत पर ले गये और श्‍वेत-श्‍याम रेखाओं से बने चित्र दिखाते रहे। पतलून की जिप खोली और गोंद गिरा कर दिखाया, कि ये जादू इस किताब से ही होता है।

चार बुआ ब्‍याह कर अपने अपने ससुराल जा चुकी थीं। पांचवीं बुआ की शादी में ज़रा-ज़रा होश वाले हो गये थे। आधी रात तक रस्‍म पूरी हो चुकी, तो फुफाजी के साथ उन्‍हें कमरे में बंद कर दिया गया। हम जिज्ञासा में दरवाज़े पर ही खड़े रह गये और किवाड़ के पल्‍ले अलगा कर अंदर झांकने की कोशिश करने लगे। दूसरों ने हमें वहां से हटाया और दबी हुई इनक़लाबी हंसी की भीड़ में हमें छुपा लिया। वो उन दोनों की सुहागरात का कमरा था। ये कभी हमारी ज़‍िंदगी में भी आयी। लेकिन सुहागरात की पारंपरिक स्क्रिप्‍ट में हमारे लिए शादी से पहले और शादी के बाद की कहानी घुल-मिल गयी थी।

पहला-पहला प्‍यार दरअसल कुछ होता नहीं है। ढेर सारी जुगुप्‍साएं होती हैं, जो हमारे आसपास स्त्रियों की दुनिया के वृत्त बनने के साथ-साथ उगना शुरू होती हैं। बलभद्रपुर में हमारी दूसरी मकान मालकिन की पोती अपूर्व सुंदरी थी और हमने दूसरी कक्षा में ही उसे दिल दे दिया था। उसने अपने खुले हुए बाल छूने के लिए दिये थे। उसका नाम था।

87 के भूकंप में हम पांचवीं कक्षा में थे। कई सारे मकान गिर गये और बेघर हुए लोग बचे हुए मकान वाले रिश्‍तेदारों के यहां सर छिपा रहे थे। की एक रिश्‍तेदार भी उसके यहां आ गयी, जिनकी दो नीली आंखों वाली बेटियां थीं। हमारी ही उम्र की। बड़ी को ठीक से पता था कि अठखेल क्‍या होता है। हमने एक बार कहा कि हमें अपनी गोद में लो, तो उसने मना कर दिया। लाख मनुहार के बाद वादा किया कि अपनी एक सहेली को मेरे लिए तैयार करेगी। ये वादा अगले दिन के साथ ही भूकंप के मुआवज़े में ग़ुम हो गया। अपने नये बने घर में वो रहने चली गयी। बाद में कभी रास्‍ते पर मिली, तो छोटे शहरों की झिझक और बंदिश एक दूसरे की ओर जी भर के देखने के आड़े आती रही।

बचपन से जिस क़दर हमारा माहौल इनक़लाबी होता है, उसमें हमारी मासूमियत भी शिकार होती है और धीरे-धीरे हम भी शिकारी मन के हो जाते हैं। पूरा कैशोर्य चिपचिपाहट की गलियों में भटकता रहता है और सिगरेट के शुरुआती धुएं होंठों के रंग स्‍याह करने में मशगूल रहते हैं। बाद में जब भी दरभंगा-रांची और फिर पटना-रांची के रास्‍ते में झुमरीतिलैया के आसपास किसी लाइन होटल में बस रुकती - ज़‍िंदगी की ये जुगुप्‍साएं झक पीली रोशनियों वाली पान दुकान से सस्‍ते (गंदे) गानों में ढल कर सुनाई देती रही। हम सुनना चाह कर भी कान मूंद लेते रहे। अच्‍छा बच्‍चा बनने की फिराक में इनक़लाब हाथ से फिसलता रहा।

कल रात एक गाना यू ट्यूब पर मिल गया। हरा-हरा नेबुआ क़सम से गोल गोल। भोजपुरी फ़ैज़ाबादी सर्च से हाथ लगा ये गाना हमें उन्‍हीं इनक़लाबी दिनों में ले गया, जब लड़कियां हमारे लिए सात समंदर पार एक गुफा में मौजूद पिंजड़े में बंद होती थीं और गुफा के दरवाज़े पर कुछ विशालकाय राक्षस उसकी पहरेदारी करते थे। हमारे बुज़ुर्ग ऐसे ही तो होते हैं। बहरहाल...

ब्‍लॉग की दुनिया के पवित्र-पावन दोस्‍तों से माफ़ी के साथ मैं ये वीडियो यहां पेश कर रहा हूं।

3 comments:

Arvind Mishra said...

अविनाश जी ,आपकी साफगोई ऑर अंदाजे बयां दोनों ही काबिले तारीफ है .आपकी प्रतिभा साफ झलकती है.मोरल पोलिसिंग का कोई मामला यहाँ बनता ही नजर नही आता . इसके सहारे लोगों को अश्लील[पोर्नोग्रैफिक ] ऑर कामोद्दीपक[इरोटिक ] साहित्य का फर्क भी समझ लेना चाहिए .हाँ व्यावसायिक उद्देश्यों के चलते कहीं कहीं इन दोनों विधाओं की बारीक सीमा रेखाएं अतिक्रमित होती नजर आतीं हैं. अब जैसे इसी वीडिओं का आख़िरी सीन आपत्तिजनक सा है ,लेकिन वह भी आग बुझने के प्रतीकात्मक अर्थ के साथ कलात्मक हो जाता है.
अब बहुत कुछ देखने वाले की नजर कैसी है इस पर निर्भर है -मुझे तो सौन्दर्यपरक ऑर सुरुचिपूर्ण लगा .
शुक्रिया

Anonymous said...

जो लोक में 'इरोटिक' होता है वह शहरातू जबान (जिसमें चाक्षुस भाषा शामिल है) में आकर अश्लील और फूहड़ अथवा अश्लील या फूहड़ हो सकता है . लोक के 'इरोटिक' का किसी भी विधा/अनुशासन में अनुवाद लगभग असम्भव प्रतीत होता है . लोक के 'इरोटिक' का लोक से नाभिनाल सम्बंध है . वह सम्बंध, वह संतुलन टूटते ही स्वस्थ 'इरोटिक' बीमार 'इरोटिक' में और 'पोर्नोग्राफिक' में बदलने लगता है .

यही विरोधाभास -- यही विपर्यय और विपर्यास -- इस 'इरोटिक' लोकगीत को गाती दीन-हीन उदास-उदासीन ग्रामीण महिलाओं और बिना ओढनी के रेशमी चनिया-चोली में फूहड़ और कल्पनाहीन ढंग से नाचती वीडियो की उस नायिका में दिखता है .

शहरातू आदमी के पास लोक का 'इरोटिक' , अश्लील और फूहड़ हो कर पहुंचने के लिए अभिशप्त है . लोक के 'इरोटिक' को समझने के लिए जैसा स्वस्थ और अकुंठ मन चाहिए वैसा नागर समाज में कितने लोगों के पास है ?

मनीष राज मासूम said...

गहन चिंतन