भोपाल। 26 नवंबर की रात हम घर जल्दी आ गये थे। इंग्लैंड के साथ पांचवां वन डे मैच था। इंडिया की जीत के साथ ही हमने एनडीटीवी इंडिया लगा कर देखा कि इस पांचवें और तयशुदा जीत पर कैसी ख़बरें आ रही हैं। हम उन नये मुहावरों को जानने के लिए भी मैच ख़त्म होने के बाद टीवी चैनलों पर जाते हैं - जो किसी भी मीडिया एथिक्स से ऊपर गढ़े जाते हैं। जैसे कि धोनी का धमाल या फिर धोनी की टोली ने किया धराशायी। एनडीटीवी इंडिया पर क्रिकेट था - लेकिन शोर मचाने के लिए मशहूर स्टार न्यूज और आजतक पर मुंबई में ताबड़तोड़ गोलीबारी के फ्लैश आ रहे थे। मिनटों में बाक़ी के चैनलों ने भी मुंबई का रुख कर लिया। रात गहरा रही थी और मामला संगीन होता जा रहा था। हम वक्त पर सोये और सुबह के अखबार ने हमें बताया कि मुंबई में सौ जानें जा चुकी हैं और सुबह के साढ़े तीन बजे तक - जब अखबार का आखिरी पन्ना छपने जा रहा था - बेकाबू आतंकवादियों की दहशतगर्दी और एनएसजी कमांडोज़ का ऑपरेशन जारी था। हमने बिना किसी हड़बड़ी के टीवी ऑन किया। हां, अब भी आतंकवादियों पर काबू करने की कोशिशें जारी थीं। लोगों के मारे जाने का सिलसिला भी जारी था। हम सुबह नाश्ता नहीं करते (एक कटोरी कॉर्नफ्लेक्स खाने को आप भी नाश्ता नहीं ही कहेंगे) - इसलिए नाश्ता नहीं करने के रोज़मर्रे के साथ घर से निकले। साथ में लंचबॉक्स लेकर।
ऑफिस पहुंचने तक मुंबई में सब कुछ चल रहा था। अब हम एक्साइटेड हुए - क्योंकि इस एक्साइटमेंट की काम को ज़रूरत थी। माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय में हम कुछ रोज़ से लड़के-लड़कियों के साथ इंट्रैक्ट करने के लिए जाते हैं - वही सब बीच-बीच में बताते रहे हैं कि ‘अ वेन्सडे’ एक फिल्म आयी थी - आप देखते - कमाल की फिल्म थी। आम आदमी का गुस्सा, आतंकवाद, मीडिया के इस्तेमाल पर वैसी फिल्म अब तक नहीं बनी - वगैरा-वगैरा। हमारे न्यूज एडिटर महेश लिलोरिया ने जब कहा कि हम मुंबई में चल रहे मौजूदा घपले को रील लाइफ के ड्रामा से जोड़ते हैं, तो हमारे एक्साइटमेंट को एक आधार मिला। हम इस संतोष के साथ घर लौटे कि आज का अखबार हमने कमाल का निकाला है। कल लोग देखेंगे, तो वाह तो कहेंगे ही।
हमने दोपहर में लंच किया। रात में डिनर। सोने से पहले जब टीवी ऑफ कर रहे थे - मुंबई में आतंकी कार्रवाई पर काबू की कोशिश जारी थी। यानी 24 घंटे बाद भी सीन साफ नहीं था। हम सो गये, क्योंकि रोज़ रात को सो जाने का नियम है।
सुबह हमने सबसे पहले अपना अखबार खोला और बार-बार उसे निहारा। अपने कमाल पर निहाल हुए - लेकिन एमएससी ईएम की एक छात्रा के फोन ने हतोत्साहित कर दिया। उसने ‘अ वेन्सडे’ के साथ मुंबई मामले की तुलना पर एतराज़ जाहिर किया था। हमने उससे कहा कि अपना एतराज़ लिख कर भेज दो - हम उसे भी छापेंगे। आज भी हम कॉर्नफ्लेक्स खाकर, लंच लेकर ऑफिस गये और न्यूज एडिटर से फीडबैक लिया। उन्होंने बताया कि आज का अखबार देख कर सब चकित हैं। मैंने उन्हें सुबह के फोन वाला फीडबैक दिया और उस छात्रा को दफ्तर भी बुला लिया। दोनों ने खूब बहस की और कोई एक दूसरे को कन्विंस नहीं कर सका। 28 नवंबर की शाम मा.च.प.सं.विवि की एक नौजवान टोली ने धावा बोला। उनके हाथों में कागज़ थे, जिन पर नीली स्याहियों में कुछ-कुछ दर्ज था। वो गुस्सा था - जो मुंबई हादसे के बाद उन्होंने जाहिर किया था। ज्यादातर लोग नेताओं को गोली मार देने के पक्ष में थे। हमने उन्हें भरोसा दिया कि अब आज तो नहीं, लेकिन कल जरूर उन सबके विचार अखबार में छापेंगे।
उस दिन सीधे घर लौटने का प्रोग्राम नहीं था। बीवी बेटी को लेकर न्यू मार्केट में थी। हम वहीं मिले। खरीदारी की। दुकानों में टीवी चैनल्स मुंबई का समाचार दे रहे थे। लोग गाहे-बगाहे, अपनी-अपनी दिलचस्पी के हिसाब से एक-आध बार उधर भी नज़रें दौड़ा लेते थे। इन्हीं लोगों में हम भी शामिल थे। हमने 28 नवंबर की शाम का डिनर बाहर ही किया। घर लौटे। सो गये।
तीसरे दिन सुबह नौ बजे के आसपास जवानों के ऑपरेशंस तो ख़त्म हो चुके थे, लेकिन ताज में सर्च अभियान चल रहा था, जो अगले कुछ घंटों तक चलने वाला था। हम रोज़मर्रा की तरह ही विचलित थे, सहज थे, शांत थे - वो सब थे, जो लगभग रोज़ ही होते हैं - अलग-अलग वक्त पर।
पूरे देश में बहस जारी थी। बीजेपी ने विज्ञापनों से देश के अखबार पाट दिये। आतंकवाद को कुचलना है, तो बीजेपी को वोट दो। बीजेपी की राजनीति देश की आवाज़ नहीं है, फिर भी देश 29 नवंबर को शिवराज पाटिल का इस्तीफा चाह रहा था। हमने 29 नवंबर को गुस्साये नौजवानों का जो स्पीकअप अखबार के पेज पर चस्पां किया - उसमें एक प्रमोद दुबे भी थे। उन्होंने लिखा, ‘मैं प्रमोद दुबे, भारत का एक साधारण नागरिक हूं, जो कहीं पदासीन, प्रतिष्ठित या मनोनीत नहीं है। साधारण हूं, इसलिए भारत की बढ़ती असाधारण समस्याओं के प्रति उदासीन हूं। तो भारत का यह साधारण नागरिक यह स्वीकार करता है कि वह व्यवस्था के साथ म्युचुअल कांस्पिरेसी में शरीक रहा है।’ मुझे लगा कि आज भी हम विचारोत्तेजना की स्टाइलशीट में अख़बार फिट करके घर लौटे हैं।
30 नवंबर। दोपहर से पहले शिवराज पाटिल इस्तीफा दे चुके थे। हमने सुबह टीवी पर खबर नहीं देखी थी - एक फिल्म देखते रह गये थे। इस्तीफे की ख़बर मुझे श्रीकांत सिंह, एचओडी, एमएससी ईएम, मा.च.प.सं.विवि से मिली। हम दोनों विश्वविद्यालय के एमएससी ईएम के फ्रेशर्स डे में मौजूद थे। मेरी बेटी गोद में थी। उन्होंने एक लिफाफे में भरा मौद्रिक आशीर्वाद उसके हाथ में थमाया और मुझसे पूछा - आज इसका जन्मदिन है न। छात्र-छात्राओं ने मेरी बेटी के जन्मदिन पर भव्य आयोजन किया था। केक से लेकर बैलून, चमकी, समोसा, मिठाई तक। हम मियां-बीवी अंदर से भर आये थे। ये भरना आयोजन की भव्यता से गदगद होकर हुआ था।
पिछले तीन दिनों तक मुंबई में जो हुआ - हम एक बार भी नहीं रोये थे। बल्कि कई बार किसी न किसी बात पर ठठा कर हंसे थे।
Sunday, November 30, 2008
नागरिकनामा : न सिहरन, न अपराधबोध!
Posted by Avinash Das at 10:35 AM 3 comments
Labels: चिंता की लकीरें, विचार ही जगह है
Monday, September 8, 2008
तुम सुन सकोगे न अपनी आवाज़?
अभी दिल्ली में हैं। बोरिया-बिस्तर समेटने में लगे हैं। पिछले 12 सालों में पटना के अलावा दिल्ली दूसरा ठौर रहा, जहां लगातार तीन साल कट गये। सामान सहेजते हुए मुक्ता कई सारे काग़ज़ हाथ में थमाती रहती है। पुराने काग़ज़ों का पुलिंदा आपकी कई यात्राओं तक साथ रहता है - जब तक उन काग़ज़ों का मर्म आपका पीछा करता रहता है। हर बार सामान समेटते हुए आप ऐसे काग़ज़ों में से खुद चुनते हैं कि अगले मोड़ तक इनमें कौन अब साथ रहेगा, और कौन-से काग़ज़ अब टुकड़ों में बदल देना है। किन यादों की अब आपको ज़रूरत नहीं। इन्हीं में से मज़्कूर आलम की एक कविता मिली। मज़्कूर मेरे साथ देवघर में काम करते थे। प्रभात ख़बर का देवघर संस्करण पत्रकारिता का उनका शुरुआती सफ़र रहा। इसके बाद वे नवबिहार, हिंदुस्तान दैनिक, आईनेक्स्ट से जुड़ते रहे और अलग होते रहे। फिलहाल लंबे समय से द संडे इंडियन के भोजपुरी संस्करण में हैं। उनकी ये कविता मैं भोपाल नहीं ले जा रहा। सादा काग़ज़ पर पूरी कविता टाइप्ड है - श्रीलिपि फॉन्ट में। हाथ से ऊपर लिखा है, बड़े भाई अविनाश को। काग़ज़ के पीछे भी हाथ की लिखाई है, माफ करेंगे, तुमसे अपनापन का बोध होता है न, लेकिन कह नहीं सकता; इसलिए लिख रहा हूं। कविता का शीर्षक है - कामरेड! तुम सुन सकोगे न अपनी आवाज़...
पुते हुए चेहरों मेंये कविता मज़्कूर ने जब बस्ते में रखी होगी, तब मुझे शायद पता नहीं होगा। वो भावुक लड़का है और मैं उसका लिखा नहीं पढ़ता। खास कर व्यक्तिगत रूप से लिखी उसकी पातियां। क्योंकि संवेदना के किसी पचड़े में पड़ कर मैं खुद को दुखी नहीं करना चाहता। अब सुखी रहना चाहता हूं। लेकिन सफ़र की तैयारी में मिलने वाले पुराने काग़ज़ पुराना दुख दोहरा देते हैं। मज़्कूर ये कविता मैंने आज पहली बार पढ़ी। Read More
बिस्तर की सलवटों को
कैमरा से खींचते या दिखाते,
गर्मागर्म ख़बरों को परोसते
व्यूवर्स बटोरते
मेरा भारत महान, वंदे मातरम् का नारा लगाते
तुम भी तो डायना की जान के ग्राहक तो नहीं बन जाओगे?
तुम्हारी रातें गर्म और उमस भरी तो नहीं हो जाएंगी
जो करवटों में बीतेंगी?
गेट्स व अंबानी की मटकती चालों पर
फिदा तो नहीं हो जाओगे?
सभ्यता व संस्कृति की संचार क्रांति पर सवार तो नहीं हो जाओगे?
भूख, अकाल और विस्थापितों पर
क्या तब भी पैन होती रहेंगी तुम्हारी निगाहें?
बाढ़ के शब्दचित्रों को ढाल सकोगे रूपक में?
कहीं तुम भी बाज़ीगर तो नहीं बन जाओगे
आंखों के इशारे से सत्ता पलटने वाले मर्डोक की तरह?
कहीं ऐसा न हो
व्यवस्था परिवर्तन को लात मारकर भेज दो परिधि पर
और छोड़ दो उसे अंतरिक्ष में ज़मीन का चक्कर लगाने के लिए
कि वह ख़्वाब ज़िंदा भी रहे
और उस पर गुरुत्वाकर्षण बल भी न लगे
पर सुविधा परिवर्तन होता रहे,
बाज़ार के खनकते व खनखनाते कोलाहल में
जहां बिकने को बहुत कुछ है
और बहुत भारी है ख़रीदारों की जेब
वहां बिकने वाली ख़बरों के बीच
बचा सकोगे अपने आप को?
कामरेड
तुम सुन रहे हो न मेरी आवाज़?
तुम सुन सकोगे न अपनी आवाज़?
Posted by Avinash Das at 7:47 AM 15 comments
Labels: कविता की कोशिश, स्मृतियों की अनुगूंजें
Friday, August 29, 2008
चले तो उसको ज़माने ठहर के देखते हैं
मुशायरे कभी सुना करते थे। साइकिल पर चढ़ कर मोराबादी से हरमू कॉलोनी तक जाने का जुनून अब तक ज़ेहन में है। ये रांची की बात है। बाद में शहीद चौक के पास जिला स्कूल में भी एक कवि सम्मेलन हुआ था - जिसमें उन दिनों शहर में अच्छी खासी चर्चा पाने वाले एक हास्य कवि ने पत्नी चालीसा का पाठ किया था। एक बार बेगूसराय में केडी झा और प्रदीप बिहारी के सौजन्य से हमने भी अखिल भारतीय कवि सम्मेलन में शिरकत की थी, जिसमें ज्यादातर आस-पड़ोस के कवि थे। अखिल भारतीयता के नाम पर यश मालवीय आये थे, जिन्होंने मेरी गुजारिश पर सुनाया था - कहो सदाशिव कैसे हो। ज्यादातर कवि सम्मेलन बस ऐसे ही हुआ करते थे। कोई दरभंगा का दुष्यंत आ जाता था, तो कोई समस्तीपुर के साहिर आ जाते थे। असल मुशायरे में जाना एनडीटीवी की नौकरी के पहले साल में हुआ। कुमार संजॉय सिंह ले गये थे, जो एनडीटीवी इंडिया पर अर्ज किया है के प्रस्तोता थे। वसीम बरेलवी और खातिर गजनवी को वहां सुना। खातिर गजनवी की मौत हाल ही में हुई। उन्होंने सुनाया था, गो जरा सी बात पर बरसों के याराने गये। लेकिन इतना तो हुआ कुछ लोग पहचाने गये। उस मुशायरे का जिक्र एक आर्टिकल में मैंने किया था, जो हंस में छपा। मैंने लिख दिया था कि चवन्नी छाप शायरों की सोहबत में रहने वाले संजॉय सिंह मुझे इस शानदार मुशायरे में ले गये थे। चवन्नी छाप वाली बात पर संजॉय जी से जो झगड़ा हुआ, वो आज तक जारी है।
गालिब पर एक समारोह था, बल्लीमारान में - तब एक मुशायरा हुआ। वो पहला मुशायरा था, जिसमें शुरू से आखिर तक बैठकर हमारी रात गुज़री। मेरा दोस्त और मैथिली-हिंदी में कविताएं-आलोचना लिखने वाला पंकज पराशर साथ था और जमशेदपुर की मेरी परिचित रश्मि भी थी, जिन्हें मैं अपने साथ ले गया था। या ये भी हुआ होगा कि वे मुझे अपने साथ ले गये होंगे - याद नहीं। मुनव्वर राना, गोपालदास नीरज, बाल कवि बैरागी, निदा फाजली सब थे। लेकिन जिस एक शख्सियत की वजह से मैं यहां मुशायरों के जिक्र में उलझा हुआ हूं, वे थे अहमद फराज़। अभी अभी अपने चाहने वालों से हमेशा के लिए विदा हो चुके फराज़ साहब की गजल हमने टूटे हुए दिल के दिनों में खूब गाये हैं - रंजिश ही सही दिल को दुखाने के लिए आ। आ फिर से मुझे छोड़ के जाने के लिए आ। अहमद फराज साहब ने बल्लीमारान में बहुत सारी गजलें सुनायीं। लेकिन एक गजल की याद हमेशा ताजा रहती है। वो मैं आप सबके लिए यहां पब्लिश कर रहा हूं।
सुना है लोग उसे आंख भर के देखते हैंRead More
सो उस के शहर में कुछ दिन ठहर के देखते हैं
सुना है रब्त है उस को खराब हालों से
सो अपने आप को बर्बाद करके देखते हैं
सुना है दर्द की गाहक है चश्मे नाज़ुक उसकी
सो हम भी उसकी गली से गुज़रके देखते हैं
सुना है उस को भी है शेरो शायरी से शगफ
सो हम भी मोजज़े अपने हुनर के देखते है
सुना है बोले तो बातों से फूल झड़ते हैं
ये बात है तो चलो बात करके देखते हैं
सुना है रात उसे चांद तकता रहता है
सितारे बामे फलक से उतरके देखते हैं
सुना है हश्र हैं उसकी ग़ज़ाल सी आंखें
सुना है उसको हिरन दश्त भर के देखते हैं
सुना है दिन को उसे तितलियां सताती हैं
सुना है रात को जुगनू ठहर के देखते हैं
सुना है रात से बढ़ कर है काकुलें उसकी
सुना है शाम को साए गुज़र के देखते हैं
सुना है उसकी सियह चश्मगी क़यामत है
सो उसको सुर्माफ़रोश आंख भर के देखते हैं
सुना है उसके लबों से गुलाब जलते हैं
सो हम बहार पर इल्ज़ाम धर के देखते हैं
सुना है आईना तमसाल है जबीं उसका
जो सादा दिल हैं... बन संवर के देखते हैं
सुना है जब से हमाइल हैं उसकी गर्दन में
मिज़ाज और ही लाल-ओ-गौहर के देखते हैं
सुना है चश्मे तसव्वुर से दश्ते इमकां में
पलंग ज़ावे उस की कमर के देखते हैं
सुना है उसके बदन के तराश ऐसे हैं
कि फूल अपनी क़बाएं कतर के देखते हैं
वो सर्व-क़द है मगर बे-गुले मुराद नहीं
कि उस शजर पे शगूफ़े समर के देखते हैं
बस एक निगाह से लुटता है क़ाफ़िला दिल का
सो रह-रवाने तमन्ना भी डर के देखते हैं
सुना है उसके शबिस्तां से मुत्तसिल है बहिश्त
मकीं उधर के भी जलवे इधर के देखते हैं
रुके तो गर्दिशें उसका तवाफ़ करती हैं
चले तो उसको ज़माने ठहर के देखते हैं
किसे नसीब कि बे-पैरहन उसे देखे
कभी कभी दरो दीवार घर के देखते हैं
कहानियां ही सही सब मुबालग़े ही सही
अगर वो ख़्वाब है ताबीर करके देखते हैं
अब उसके शहर में ठहरें कि कूच कर जाएं
फ़राज़ आओ सितारे सफ़र के देखते हैं
Posted by Avinash Das at 2:13 AM 8 comments
Labels: अंतिम यात्रा, स्मृतियों की अनुगूंजें
Saturday, August 23, 2008
देवता मेरे सपने चुराते हैं और महंथों को बेच आते हैं!
तारानंद वियोगी मैथिली के बड़े कवि हैं। उनकी कविताओं का हिंदी में एक चयन अगले माह नयी किताब प्रकाशन से छपने वाला है। चयन और अनुवाद मेरा है। संकलन की भूमिका यहां प्रस्तुत है। साथ ही दो कविताएं भी। नोश फरमाएं।
तारानंद वियोगी की कविताएं मेरे लिए महज पाठ-सामग्री कभी नहीं रहीं, उन तमाम शब्दों की तरह जो अनगिनत लेखकों ने इजाद किये और जिन शब्दों ने हमारे लिए दुनिया को जानने-समझने वाले दरवाजे की सांकल उतारी। तारानंद की कविताओं ने मेरी निजी दुनिया का निर्माण किया है, जिसमें चलने-बोलने-सोचने और लिखने का तरीका शामिल है। मेरी पैदाइश के ठीक से अठारह बरस भी नहीं हुए थे, जब तारानंद से मेरा परिचय हुआ। मैं उस वक्त अभिव्यक्ति के खेत में उगा हुआ नवान्न था और वे हमारी भाषा को कहन की नयी गली में ले जाने वाले समर्थ साहित्यिक युवा। इस गली में परंपरा की झोपड़पट्टियां नहीं थीं, आधुनिकता के बनते हुए मकान थे। उस वक्त उनके पास विधाओं की कोई ऐसी सड़क नहीं थी, जिस पर वे दौड़ नहीं रहे थे। उनके अलावा मेरे पास उस वक्त बाबा नागार्जुन थे, जो सांसों की आखिरी तकलीफ से गुजर रहे थे और कभी कभार मेरे कागज पर थरथराती उंगलियों में कलम फंसाकर प्रसाद की तरह कुछ वर्ण खींच देते थे। साहित्य की मेरी पाठशाला में वह पहली कक्षा थी, तो तारानंद वियोगी मेरे महाविद्यालय। मेरी अपनी आवारगी ने विश्वविद्यालय में दाखिल नहीं होने दिया, वरना हम भी आदमी थे काम के।
तारानंद वियोगी महिषी के रहने वाले हैं। ये गांव बिहार के सहरसा जिले में पड़ता है। इसी गांव में शंकराचार्य से शास्त्रार्थ करने वाले मंडन मिश्र हुए और राजकमल चौधरी भी, जिनके हिंदी उपन्यासों और जिनकी मैथिली कहानियों ने आने वाली पीढ़ियों को एक नयी लीक, नया साहस दिया। महिषी में ही सिद्ध शक्तिपीठ तारास्थान है, जिसकी वजह से शहरी रहवासियों की भीड़ आये दिन जुटती रहती है। तारानंद की अपनी शख्सियत में महिषी के इन तीनों तत्वों का निचोड़ मौजूद है। एक सिरे से आप उनकी कविताएं पढ़िए, मंडन मिश्र का तर्क कौशल, राजकमल चौधरी का आधुनिक-बोध और तारास्थान की आस्था का त्रिकोण आपको हर जगह मिलेगा।
मिलनसार तारानंद एकांतिक भी हैं, जो उनकी अध्ययनशीलता को बनाये रखता है। वे संस्कृत के विद्यार्थी रहे हैं और अंग्रेजी की शतकाधिक पुस्तकें उन्होंने पढ़ी हैं। वे बचपन में अल्पकालिक चरवाहा भी रहे - बकरी चराते थे। वे उन समकालीन कवियों की तरह नहीं हैं, जिनके पांवों में हमेशा चप्पलें रहीं और जो संवेदना के कारोबार को एक शानदार सेल्समैन की तरह आगे बढ़ाना जानते हैं। उनका प्रिय श्लोक है - ईशावास्य मिदं सर्वम्। ईश्वर सभी जगह है। वो ईश्वर जो आपकी चालाकियों को उंगलियों पर गिन रहा है। वो ईश्वर जो आपके शार्टकट का हिसाब सहेज कर रख रहा है। इसलिए चाहे वो जीवन जीने का मोर्चा हो या कविता रचने का, ईमानदारी और पवित्रता तारानंद के लिए पहली शर्त है।
इस संग्रह में उनकी जितनी भी कविताएं हैं, उन्हें जोड़ेंगे तो आपको उनका जीवनवृत्त मिलेगा। एक ऐसा जीवनवृत्त जिसमें जितनी मात्रा में संताप है, तो उम्मीद के आसार भी लगभग उतनी ही मात्रा में है। उनकी कविताएं सिर्फ दृश्य नहीं हैं - दर्शन हैं, जो जीने की नयी राह देते हैं। तारानंद वियोगी कविताएं मनुष्यता के विविध आयामों की चर्चा करती चलती है। खेमों-जातियों में बंटे समाज की नयी व्याख्या करती चलती है। सरकारी दफ़्तरों में फैले भ्रष्टाचार की तल्ख रिपोर्ट करती चलती है। ये तीन तथ्य मैं उनकी महज तीन कविताओं को सामने रख कर जाहिर कर रहा हूं - बुद्ध का दुख, ब्राह्मणों का गांव और गांधी जी। वरना जितनी कविताएं, उतने अर्थ। हर कविता इतिहास और समाजशास्त्र की पगडंडी पर अनोखी संवेदना के क़दमों से चलती हुई। इन कविताओं का अनुवाद मेरे लिए संभव नहीं था। ठीक उसी तरह जैसे किसी भी लोकभाषा के साहित्य का अनुवाद किसी दूसरी भाषा में संभव नहीं, अगर उस साहित्य की चेतना भाषाई मौलिकता में नहायी हुई हो। यानी ये कविताएं अपनी मूल भाषाई लय में जो कह रही हैं - सिर्फ उसके सारों का ये संकलन है।
मेरे लिए तो यह उस काम की तरह है, जो अभी खत्म नहीं हुआ है और जो कायदे से शुरू भी नहीं हुआ है।
समूचे ब्रह्मांड में फैले हैं देवता
तीनों लोकों में चौदह भुवनों में दसों दिशाओं में
जल में थल में अनिल अनल में
ओह! कोई जगह खाली नहीं बची
जहां आदमी सिर्फ अपने साथ हो सके
तरस गया हूं तड़प रहा हूं एकांत के लिए
लेकिन ये देवता! जीना हराम कर दिया है इन्होंने!
पानी पीता हूं
तो बैक्टीरिया वायरस की तरह
जाने कितने देवता मेरे आमाशय में पहुंच जाते हैं
कैसे खाऊं अन्न?
वृक्ष के फल भी शुद्ध नहीं हैं न मुरगी के अंडे
जाने किस धूर्त्त ने इस मिलावट की शुरुआत की
कि पांच हजार वर्षों से
मेरा स्वास्थ्य चौपट चल रहा है!
चीलर की तरह ये
अंडे बच्चे देते जा रहे हैं
बढ़ती जा रही है मिलावट
हराम होता जाता है आदमी का जीवन
पत्नी से प्रेमालाप तक नहीं कर सकता चुपचाप
जाने कितने देवता
टकटकी लगाकर
घूरते रहते हैं
अपना वीर्य तक नहीं बचा विशुद्ध
कि हम वो बच्चे पैदा कर सकें
जो सिर्फ हमारे हों
दुख समझो मेरा दुख
देवता मेरे सपने चुराते हैं
और महंथों को बेच आते हैं!
बड़े तेजस्वी थे वह राजा
मगर एक दिन चले गये।
बड़े खूंखार थे
थे बड़े मायावी
एक और राजा
बड़े मेधावी थे
जाने कैसे सूंघ लेते थे ख़तरा
और पैदा होने से पहले मार डालते थे
मगर एक दिन
खुद भी मार डाले गये।
एक और आये
वह भगवान थे
एक और आये
वह शैतान थे।
समंदर को चूस लेने वाले आये
सूरज को ढंक देने वाले आये
कुछ घोड़ों पर कुछ बैलों पर
कुछ गोलों पर कुछ थैलों पर
कुछ खाली आये कुछ भरे हुए
कुछ ज़िन्दा कुछ मरे हुए
मगर सब गये
सबके सब चले गये।
चमको बमको राजा
अकड़ो पकड़ो
जो चले गए वह तुम नहीं थे
और चलाओ गोलियां
और स्वादो मछलियां
चप्पा-चप्पा जमीन नपवा लो
टके-टके पर लिख लो अपना नाम
खाओ गाओ राजा
पीओ जीओ
मस्ती करो राजा मस्ती
दुश्मन के हिस्से जाए पस्ती
भरभराओ राजा
मगर चरमराओ मत
यह बेबस धरती
किसी के साथ गयी तो नहीं
पर तुम्हारे साथ जाएगी
पक्का जाएगी
तुम्हारे साथ नहीं
तो क्या ज़हन्नुम में जाएगी? Read More
Posted by Avinash Das at 6:46 AM 3 comments
Labels: विचार ही जगह है
Tuesday, August 19, 2008
अब मैं यहीं ठीक हूं
एक गांव था जो कभी वही एक जगह थी जहां हम पहुंचना चाहते थे
एक घर बनाना चाहते थे ज़िंदगी के आख़िरी वर्षों की योजना में खाली पड़ी कुल चार कट्ठा ज़मीन पर
एक दालान का नक्शा भी था जहां खाट से लगी बेंत की एक छड़ी के बारे में हम सोचते थे
बाबूजी के पास कुछ सालों में नयी डिजाइन की एक छड़ी आ जाती थी
बाबा के पास एक छड़ी उस रंग की थी, जिसका नाम पीले और मटमैले के बीच कुछ हो सकता है
उनके चलने की कुछ डूबती सी स्मृतियां हैं जिसमें सिर्फ़ आवाज़ें हैं
खट खट खट एक लय में गुंथी हुई ध्वनि
अक्सर अचानक नींद से हम जागते हैं जैसे वैसी ही खट खट अभी भी सीढ़ियों से चढ़ कर ऊपर तक आ रही है
वही एक जगह थी, जहां जाकर हम रोना चाहते थे
लगभग चीखते हुए आम के बगीचों के बीच खड़े होकर
रुदन जो बगीचा ख़त्म होने के बाद नदी की धीमी धार से टकरा कर हम तक लौट आती
सिर्फ़ हम जानते कि हम रोये
थकान और अपमान से भरी यात्राओं में बहुत देर तक हम सिर्फ़ गांव लौटने के बारे में सोचते रहे
सोचते हुए हमने शहर में एक छत खरीदी
सोचते हुए हमने नयी रिश्तेदारियों का जंगल खड़ा किया
साचते हुए हमने तय किया कि ये दोस्त है ये दुश्मन ये ऐसा है जिससे कोई रिश्ता नहीं
सोचते हुए ही हमने भुला दिये गांव के सारे के सारे चेहरे
एक दिन गूगल टॉक पर ललित मनोहर दास का आमंत्रण देख कर चौंके
ऐसे नाम तो हमारे गांव में हुआ करते थे
जैसे हमारे पिता का नाम लक्ष्मीकांत दास और उनके चचेरे भाई का नाम उदयकांत दास है
स्वीकार के बाद का पहला संदेश एक आत्मीय संबोधन था
मुन्ना चा
हैरानी इस बात की है कि इस संबोधन का मुझ पर कोई असर नहीं था
इस बात की जानकारी और ज़िक्र के बावजूद कि संबोधन का स्रोत दरअसल गांव ही है
वो एक लड़का जो मेरी ही तरह गांव से निकल कर अब भी गांव लौटने की बात सोच रहा है
लेकिन अब मैं सोच रहा हूं एक दूसरे घर के बारे में
जो बुंदेलखंड या पहाड़ के किसी खाली कस्बे में मुझे मिल जाता
मंगल पर पानी की तस्वीरों के बाद
एक वेबसाइट पर मामूली रकम पर
अंतरिक्ष में ज़मीन खरीदने की इच्छा भी जाग रही है
अपनों के बगैर की गयी यात्रा में बहुत दूर तक साथ रहीं स्मृतियां
जिसमें चेहरे थे और थे कुछ संबोधन
सब छूट गया सब मिट गया अब सिर्फ़ मैं हूं
मेरी उंगलियां कंप्यूटर पर चलती हैं आंखें स्क्रीन पर जमती हैं
कोई दे जाता है चाय की एक प्याली बगल में
मै कृतज्ञ हूं अपने वर्तमान का
पुरानी तस्वीरों से भरा अलबम पिछली बार शहर बदलते हुए कहीं खो गया!
Posted by Avinash Das at 11:44 PM 4 comments
Labels: कविता की कोशिश
Friday, August 15, 2008
पांच रुपये का चमकता सिक्का तब भी हमारी जेब में था
(ज्ञानेंद्रपति से क्षमायाचना सहित)
नौ बरस पहले भोपाल आया था। बारिश के दिन नहीं थे। दिन भर धूप चढ़ी रहती थी। चौराहों के पास दुकानों में पीले पोहे में धंसी हुई धनिया की छोटी-छोटी पत्तियां तब भी हमारी तरफ झांकती थीं। मुझे ज्ञानेंद्रपति ने सुबह सुबह बुला लिया था। इससे पहले हिंदी के इस शानदार कवि से मेरी एकमात्र मुलाकात बनारस जन संस्कृति मंच के राष्ट्रीय सम्मेलन के दौरान 94 या 95 में हुई थी। मेरी कविताएं उन दिनों संभवा में छपी थीं, जिसके संपादक बिहार पुलिस सेवा के अधिकारी ध्रुवनारायण गुप्त थे। दिन में हमारा परिचय ज्ञानेंद्रपति से हुआ, तो मैंने काफी आत्मविश्वास के साथ उन्हें बताया था कि मैं कवि हूं और मेरी कविताएं अमुक जगह छपी हैं। रात में कवि सम्मेलन था, जिसमें अष्टभुजा शुक्ल ने भी कविताएं पढ़ी थीं और ज्ञानेंद्र जी ने संभवा की कविताओं के जिक्र के साथ कविता पढ़ने के लिए मुझे मंच पर आमंत्रित किया था। मैंने एक कविता पढ़ी थी, मुझे आज भी याद है...
गे सजनी पोरुकों ने देलियउ साड़ी तोरा दिबाली मेये कविता उन दिनों दिल्ली से छपने वाले समकालीन जनमत के एक अंक में छपी। उन्हीं दिनों के परिचय का हवाला भोपाल में मिलने पर मैंने दिया, तो ज्ञानेंद्रपति पहचान गये। भोपाल सीएसई की फेलोशिप के चक्कर में आया था और आग्नेय जी के कहने पर धर्मनिरपेक्षता पर आयोजित वृहद संवाद में रुक गया था। उन्होंने होटल में ठहरने का इंतजाम कर दिया था और आने-जाने का एसी किराया भी आवंटित किया था, जिसका एक बड़ा हिस्सा मैंने सेकंड क्लास स्लीपर में सफर करके बचा लिया था।
छलहुं कतेक बदहाली मे... ना
सभ घर सभ दरबज्जा गेलहुं
सजनी नंगटे मुंह छिछिएलहुं
तहियो बीतल पछिला दिन सभ सुनू अकाली मे
छलहुं कतेक बदहाली मे... ना
की होइ छई ई कालाजार
बाबू छोड़ि देलनि संसार
आ हुन कर श्राद्ध केलहुं मां कें सोनक कनबाली मे
छलहुं कतेक बदहाली मे... ना
किछुए खेत हमर बांचल छल
ओकरो एक सांझ लए बेचल
आ सभटा सपना बहल दियादक घर कें नाली मे
छलहुं कतेक बदहाली मे... ना
(प्रिय, माफ करना, पिछली दिवाली में भी मैं तुम्हारे लिए साड़ी नहीं ला सका। घर की माली हालत ठीक नहीं थी। सबके दरवाजे गया। सब जगह नंगा होना पड़ा। फिर भी दुख में ही दिन बीते। पता नहीं ये कालाजार क्या होता है कि पिता जी स्वर्गवासी हो गये। उनका श्राद्ध मां की सोने की कनबाली बेच कर करना पड़ा। थोड़े खेत बचे थे, उसे भी एक शाम की भूख के लिए बेच देना पड़ा। सारे सपने रिश्तेदारों के घर से निकलने वाली नाली में बह गये। प्रिय माफ करना, पिछली दिवाली में भी मैं तुम्हारे लिए साड़ी नहीं ला सका। घर की माली हालत ठीक नहीं थी।)
ज्ञानेंद्रपति भोपाल स्टेशन के पास ही किसी होटल में रुके थे। सुबह उनके पास पहुंचा, तो करीब आठ बज रहे थे। वे बेसब्री से मेरी प्रतीक्षा कर रहे थे। हमदोनों निकले और लगभग पूरे दिन भोपाल के चक्कर काटते रहे। पैदल। रात हो गयी। जब घर लौटे तो पांव वैसे ही फूले हुए लग रहे थे, जैसे कांवर यात्रा से घर लौटे श्रद्धालुओं के पैर फूले हुए होते हैं। पार्क, मस्जिदों (जिनमें एक ताजुल मस्जिद भी थी), झीलों से गुजरते हुए भोपाल से गले तक भर गये और दूसरी सुबह ज्ञानेंद्रपति के पास जाने की हिम्मत नहीं हुई। वे आज भी मेरा इंतजार कर रहे हैं, लेकिन मैं उन्हें उतनी फुर्सत से आज तक नहीं मिला हूं।
एक वाकया इसी बीच का है। उसी शाम हमसे एक भिखारी टकराया। हाथ मेरी जेब में चला गया। ज्ञानेंद्रपति ने मेरा हाथ पकड़ लिया। भिखारी को डांट कर भगाया और फिर मुझे बुरी तरह डांटा। कहा कि भीख देना कितना बड़ा अपराध है! उस शाम जेब के भीतर मेरी उंगलियों में फंसा पांच का सिक्का जेब में ही फिसल गया था।
लेकिन आज इसी भोपाल में मैंने एक बच्ची को पांच का सिक्का थमाया। भास्कर के कॉर्पोरेट एडिटोरियल के स्थानीय संपादक मुकेश भूषण के साथ जब मैं एक रेस्टोरेंट से दोपहर का भोजन करके निकला, तो आठ-नौ साल की एक बच्ची मेरे पीछे-पीछे चलने लगी। मुझे लगा कि पद्मिनी है।
पद्मिनी यूनियन कार्बाइड की विनाशलीला में नष्ट हो गयी उड़िया बस्ती की वो बच्ची थी, जो अपने पिता के साथ भोपाल आयी थी और एक शाम घर के प्यारे तोते को पका कर घर के लोगों ने जब कई दिनों की अपनी भूख मिटायी, उसके अगले दिन से पद्मिनी बस्ती के दोस्त भाइयों के साथ रेलों में झाड़ू लगा कर पैसे जुटाने लगी। एक बार बनारस स्टेशन पर वो अकेली रह गयी, तो जिस्म के दलालों ने उसे वेश्या मंडी में पहुंचाना चाहा। लेकिन बहादुर पद्मिनी उन्हें चकमा देने में सफल हो गयी। पद्मिनी इन दिनों मेरी रूह में बसी हुई है, क्योंकि डोमिनीक लापिएर और जेवियर मोरो की किताब भोपाल बारह बज कर पांच मिनट मेरे साथ हमेशा रह रही है।
मैं इस बात में यकीन करता हूं कि किसी वंचित पर इस तरह दया दिखाने से कुछ भी नहीं बदलेगा। इसके बावजूद मैं इन्हें अब यूं ही सामान्य नजरों से नहीं देख सकूंगा। मेरे पांच रुपये इनकी किस्मत की तारीख नहीं लिखेंगे - लेकिन चंद मिनटों के लिए ही सही, किसी की आंखों में चमक और रोशनी और उम्मीद तो उतार ही सकते हैं।
इसलिए मैंने तय किया है कि अब मैं ज्ञानेंद्रपति की बात नहीं मानूंगा। Read More
Posted by Avinash Das at 3:49 AM 6 comments
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Saturday, July 5, 2008
शुक्रिया कहने की इजाज़त चाहूंगा सर
यह एक बड़े पुरस्कार की तरह है। आज जनसत्ता में शिक्षाशास्त्री और एनसीईआरटी के निदेशक कृष्ण कुमार ने लिखने के रियाज़ में लगे मुझ जैसे अल्पज्ञात लेखक को तवज्जो दी है। पहले इसी ब्लॉग पर छपे रैंप पर अंतिम औरत का इतिहास और बाद में जनसत्ता के ‘दुनिया मेरे आगे ’ स्तंभ में ‘वह आख़िरी औरत ’ शीर्षक से छपे निबंध को पढ़ कर उन्होंने मुझे फोन किया था। फोन पर उन्होंने जिस तरह की खुशी ज़ाहिर की, उसे बताना मेरे लिए असमंजस की तरह था। मुझे लगता था कि जो मेरे उल्लास, मेरी खुशी को ‘अपने मुंह मियां मिट्ठू ’ के मुहावरे वाले झोले में नहीं रखेंगे, उन सबको मैंने बताया कि कृष्ण कुमार जी ने मुझे कंप्लीमेंट दिया है। बाद में मैंने पता लगा ही लिया कि अपूर्वानंद से उन्होंने मेरा फोन नंबर जुटाया था। मैंने उन्हें याद दिलाया कि 97-98 के साल में कुछ दोपहरी और सांझ मैं आपके यहां आता था। लेकिन मिलने-जुलने को लेकर मेरे निरुत्साह में एक लंबा अरसा यूं ही गुज़र गया। कृष्ण कुमार जी ने जनसत्ता में फोन पर की गयी उस प्रशंसा को जिस तरह से सार्वजनिक किया है, उसे पढ़ कर मेरी खुशी का ठिकाना नहीं है। जिन शहरों में जनसत्ता नहीं जाता है और जो जनसत्ता के पाठक नहीं हैं - उनके लिए कृष्ण कुमार जी का आलेख मैं दिल्ली-दरभंगा छोटी लाइन पर भी डाल रहा हूं।
मुक्ति की चालRead More
कृष्ण कुमार
हर शब्द अपने भीतर एक छोटा-सा इतिहास समाये रहता है, यह बात मुझे मालूम थी, पर यह समानांतर सत्य - कि शब्द में भविष्य भी झिलमिलाता है - मेरे लिए इसी पखवाड़े खुला। इस अख़बार में ‘दुनिया मेरे आगे’ एक स्तंभ छपता है, जिसमें कभी-कभी कुछ ग़ैरनिष्कर्षी गद्य पढ़ने को मिल जाता है। आठ-दस दिन पहले इस स्तंभ के तहत अविनाश की टिप्पणी पढ़ कर उस ख़बर का खुलासा मेरे लिए थोड़ी देर से हुआ, जो कई दिन पहले अख़बारों में सचित्र आ चुकी थी। ख़बर उन औरतों के बारे में थी, जो सुलभ इंटरनेशनल की पहल और मदद से मैला उठाने के काम से हटायी जा सकी हैं। अलवर की ये महिलाएं संयुक्त राष्ट्र द्वारा घोषित ‘सफाई वर्ष’ के अंतर्गत न्यूयार्क में होने वाले एक कार्यक्रम के लिए चुनी गयी हैं। इस कार्यक्रम का एक तरह का पूर्वाभ्यास, जो दिल्ली में हुआ, अविनाश के संक्षिप्त निबंध का विषय था।
अविनाश के निबंध का शीर्षक ‘वह आख़िरी औरत’ सतह पर महात्मा गांधी के मशहूर उद्धरण की गूंज लिये था, जिसमें उन्होंने आख़िरी आदमी की फिक्र की ज़रूरत बतायी है। मगर शुरुआती पैरा सीरीफोर्ट ऑडिटोरियम के मंच और अगला पैरा गांव को शहर से जोड़ने वाली कंकरीली पगडंडी पर बचपन में बाबूजी द्वारा देख लिये जाने के बारे में था। शेष लेख में उस कैटवॉक का चित्रण था, जो अलवर की महिलाओं ने भारत के विख्यात फैशन मॉडलों के साथ सीरीफोर्ट सभागार के मंच पर की। इंटरनेट पर विकीपीडिया देख कर अविनाश यह पता लगा चुके थे कि कैटवॉक उस नुमाइशी चाल के लिए इस्तेमाल किया जाने वाला शब्द है, जो कपड़ों के नये फैशन प्रदर्शित करने के लिए आयोजित की जाती है। मैला ढोने जैसा काम करने वाली महिलाएं नीली साड़ी पहन कर, अमीर मॉडलों के साथ चलीं, फिर अमेरिका जाकर वहां भी कैटवॉक करेंगी। अविनाश ने इस प्रसंग की जटिलता को बड़ी संभली हुई तराश के साथ याद किया था। लेख के आख़िरी हिस्से में एक अधूरी खुशी के आंसू भी थे, एक बड़े-से अंधेरे की घुटन भी, और एकदम अंत में मेरे जैसे कस्बाई संस्कार वाले लोगों को महानगर में पीढ़ी-दर-पीढ़ी राहत देता आया समोसा भी बदस्तूर मौजूद था। इस तरह वह लेख नहीं, पूरी दुनिया थी।
परसों वह दुनिया न्यूयार्क में साकार हुई। संयुक्त राष्ट्र के उच्च पदासीन अधिकारियों के सम्मुख वह कैटवॉक अपनी पूरी शोभा सहित संपन्न हुई। अलवर की औरतों का मुक्त गीत विश्व की समाचार एजेंसियों की ख़बर बना। अंतत: मेरा भी मन हुआ कि पुस्तकालय के वृहद शब्दकोश में कैटवॉक का अर्थ देखूं। फैशन परेड वाला अर्थ सबसे पहले दिया गया था, जिसके तहत मॉडल नये कपड़े पहने एक उठी हुई सतह पर दर्शकों और कैमरे के सामने चलती हैं। इसके बाद भी कई अर्थ दिये थे। मुझे उन सभी अर्थों को पढ़ना ज़रूरी लगा, क्योंकि बिल्लियों में मेरी दिलचस्पी बचपन से रही है। मैं यह जानने को उत्सुक था कि फैशन की दुनिया में बिल्ली कैसे शामिल हो गयी। भाषा के इतिहास में चले किसी अनोखे खेल के नियम समझने की जिज्ञासावश मैंने पत्नी से कहा कि वे शब्दकोश की महीन छपाई पढ़ें, क्योंकि मेरी आंखों में इतनी रोशनी नहीं है।
शब्दकोश में लिखा था कि ‘कैटवॉक’ मूलत: संकरे पुलनुमा ढांचे को कहा जाता था, जिसे निर्माणाधीन इमारतों में, जहाजों और रेलों में मज़दूरों और सफाई कर्मचारियों के लिए बनाया जाता है। लकड़ी, बांस या धातु का यह संकरा ढांचा ऊंचाई पर स्थित छज्जों या पानी की टंकियों तक पहुंचने में मदद करता है। टंकी साफ करके कर्मचारी के लौट आने के बाद ढांचा हटाया जा सकता है। इसे कैटवॉक कहते थे। पीछे बिल्ली की तरह संभल कर कदम रखने और चौकन्ना रहने की ज़रूरत है।
इस सघन अर्थछाया के आलोक में अलवर की मैला ढोने वाली औरतों का पहले दिल्ली, फिर न्यूयार्क में प्रायोजित कैटवॉक थोड़ा दूर तक देखा जा सकता है। फैशन मॉडलों के साथ कैटवॉक की उपयुक्तता प्रायोजकों को संभवत: इसलिए सूझी होगी, क्योंकि मैला ढोने से मुक्त किये गये ये इंसान नारी थे, पुरुष नहीं। कपड़ों के नये फैशन का विज्ञापन करने वाली कैटवॉक मुख्यत: औरतों की परेड रही है, आदमी अभी-अभी और बहुत कम संख्या में आने शुरू हुए हैं। मैला ढोने वाली महिला को शख्सियत मिली, अविनाश के लेख में आये आंसू इसी बात की खुशी के थे। शख्सियत एक ऐसे आयोजन से मिली, जो भूमंडलीकरण के युग में नारी की घुटन के अभूतपूर्व विस्तार से जुड़ा है, यह बात उसी अंधेरे का ख़ौफ़ पैदा करती है, जो जनगढ़ सिंह श्याम ने जापान की व्यापारिक आर्ट गैलरी में अपनी आदिवासी आंखों के एकदम सामने महसूस किया होगा। जानकार लोग कहते हैं कि कैटवॉक कर रही औरत को अपनी आंखों में वही भाव लाना सिखाया जाता है, जो उमंग के साथ कंघी कर रहे किशोर के चेहरे पर स्वाभाविक रूप से इस सोच के साथ आ जाता है कि कोई मुझे देख रहा है। संकरे, रपटे या मुंडेर पर चल रही बिल्ली में यह भाव नहीं होता। पर बिल्ली मनुष्य को क्या-क्या सिखाये। हजारों साल के साहचर्य के बाद भी वह मानव को यह नहीं सिखा सकी कि आत्मसम्मान एक ऐसा भाव है, जो कहीं और जाकर नहीं, यहीं व्यक्त होना चाहिए और अपने ही मन और देह में प्रकटना चाहिए, मुजरे के दर्शकों की आंखों से नहीं।
Posted by Avinash Das at 9:31 PM 14 comments
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Saturday, June 21, 2008
रैंप पर अंतिम औरत का इतिहास
ऑडिटोरियम में उम्मीद से अधिक लोग थे। मंच ख़ाली था - घुमावदार रोशनियों का वृत्त उसे बहला रहा था। हम देर से पहुंचे थे और वक्त से कुछ भी शुरू नहीं हुआ था। जो शुरू होना था, वो कैटवॉक था, जिसमें हमारी दिलचस्पी इस वहम के साथ कभी नहीं रही कि मंच पर चलते हुए किसी को क्या देखना। आपके क़दम तमीज से ज़मीन पर पड़ते हैं या बेडौल बदतमीज़ी से - इसमें किसी की क्या दिलचस्पी हो सकती है भला!Read More
हमारे गांव से एक पगडंडी निकलती है, जो शहर पहुंचाती है। जेल की दीवार का एक कोना हमारे गांव की ओर देखता है और दूसरा कोना शहर की ओर। हम शायद शहर से लौट रहे थे, रास्ते के कंकड़-पत्थर को पैर मारते हुए। अचानक पीछे नज़र पड़ी। बाबूजी आ रहे थे। उनकी छवि इतनी सख़्त हुआ करती थी कि हमारा अपनी तरह से जीने का पूरा आत्मविश्वास घुटनों के बल रेंगने लगता था। पहले हमारे पांव सीधे हुए और फिर इतने करीने से आगे बढ़े जैसे पहले कभी उन पांवों ने शैतानियां की ही न हों।
ज़मीन पर क़दम रखना आपकी एक आदत हो सकती है कि आप ऐसे ही रखेंगे, जैसे रखते आये हैं। लेकिन नकलची अक्सर आपकी तरह से डग भर कर आपको बताएंगे कि आपके चलने में क्या ख़ास बात है। इसलिए क़दम कारीगर के हों या कलाकार के, वे अपनी फ़ितरत से पहचान लिये जाते हैं।
विकिपीडिया से मैं थोड़ा और दुरुस्त हुआ कि कैटवॉक दरअसल कपड़ों की नुमाइश का इवेंट होता है। 21 जून, शनिवार की शाम को मैं इसलिए भी सीरीफोर्ट ऑडिटोरियम चला गया, क्योंकि मदन झा ने पहले ईमेल किया था, फिर फोन किया और आख़िर में एक एसएमएस। मदन झा सरोकारों वाले अख़बारनवीस रहे हैं और एक बार वे दरभंगा से पटना तक मुझे अपनी मोटरसाइकिल पर बिठा कर लाये थे। रास्ते में मुज़फ़्फ़रपुर के पास लाइनहोटल में बढ़िया खाना भी खिलाया था। तब वे टाइम्स ऑफ इंडिया के दरभंगा कॉरस्पॉन्डेंट थे या इंडियन नेशन पटना में आ गये थे, ये याद नहीं। क़रीब 12 साल पहले का वाक़या है।
मुझे उन्होंने अलवर की उस महिला से मिलवाया था, जो पहले सर पर मैला ढोती थी और अब सुलभ इंटरनेशनल से जुड़ी है और पुरानी मैला प्रथा के अंधेरे को याद भी नहीं करना चाहती। भगवती की कहानी आपको याद होगी। इन्हीं के बीच की कुछ महिलाएं यूनाइटेड नेशन जा रही हैं। वहां कैटवॉक करेंगी। ऐश्वर्या राय उस मौक़े की गवाह बनेंगी। परदेस में कैटवाक का देसी रिहर्सल ही था, जिसमें देश के टॉप 21 मॉडल अलवर की राजकुमारियों के साथ रैंप पर चल रहे थे।
जस्सी रंधावा, कारोल ग्रैसिया, राहुल देव, आर्यन वैद्य के साथ सारे के सारे मॉडल सबसे पहले रैंप पर चले और पर्दे के पीछे लौट गये। एक मॉडल बची रह गयीं, शीतल मल्हार। मंच के पार्श्व पर्दे के पास खड़ी होकर मुस्करायी और उसके पास आसमानी रंग की साड़ी पहने एक औरत आयी। दोनों ने एक दूसरे का हाथ पकड़ा और रैंप के आख़िरी किनारे तक आये और फिर लौट कर एक ओर खड़े हो गये। फिर और भी मॉडल ऐसी ही जोड़ी बना कर रैंप पर आये। किनारे खड़े होते गये। मॉडल्स और अलवर की साधारण औरतों के क़दमताल से सुर मिलाने वाला संगीत दिल में धम-धम बज रहा था। मेरी आंखों का कोर भीग गया।
यह एक छिछली भावुकता थी, जो अक्सर सिनेमा के दृश्य देखते हुए मेरी आंखें भिगो जाती है। यह जानते हुए कि दुनिया एक रंगमंच है और शोक, असफलता, विरह, भूख के बाद जितने भी आंसू गिरते हैं, वे संवेदनशीलता की महज एक अदा होते है। शनिवार, 21 जून की शाम जब मेरी आंख भीगी, तो वह एक अदा थी या आदत या कोई चीज़ थी, जो सचमुच दिल को भेद गयी थी, मैं समझ नहीं पाया। मेरे सामने ऊंच-नीच की रीत को रौंदने वाले दृश्य खड़े थे और वह महज नाटक नहीं था।
काफी देर हॉल में गुमसुम बैठने के बाद मैं बाहर निकल आया। गिरींद्र से भेंट हुई। संजय त्रिपाठी मिला, पटना के दिनों का मेरा दोस्त। हम सीरीफोर्ट की सरहद से बाहर निकल समोसा खा आये। लौटे तो बारिश की बूंद मेरी हथेली पर गिरी। वे आंसू नहीं थे क्योंकि इस वक्त हम सब किसी बात पर हंस रहे थे।
आइए, आख़िर में अलवर की इन महिलाओं पर एक फिल्म देखें, नयी दिशा...
Posted by Avinash Das at 12:04 PM 10 comments
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Saturday, June 14, 2008
मीरा से मुलाक़ात
बेड लाउंज... एंड बार। लकड़ी का मजबूत फाटक पहाड़ खिसकाने की तरह खुला। रोशनी की आंधी ने आंखों में अंधेरे के धूल बिखेर दिये। हड़बड़ा कर मैंने फाटक छोड़ दिया। वह अपनी जगह आकर लग गया। मेरी एक हथेली पर डर था, दूसरी पर संकोच। दीवार के पार रोशनी का समंदर था। उसमें जाना ही था। डुबकी लगानी ही थी। दूसरी बार मैंने फाटक को मजबूती से हाथ लगाया। रोशनी के फाहे चेहरे पर आने दिये। अब मैं अनगिनत फुसफुसाहटों और एक लरजती हुई गूंजती आवाज के बीच गुमसुम आ टिका था।
बार किसी पुराने शहर के अंधेरे स्टूडियो की तरह खाली और रहस्यमय था। बीच से लकड़ी की एक सीढ़ी ऊपर जाती थी। ऊपर की दुनिया बस एक हाथ के फासले पर थी, आंखों के ठीक सामने।
वह ‘मीरा’ थी... रोशनी जहां से फूट रही थी, रोशनी जहां पर झर रही थी। मीरा बीच सीढ़ी पर बैठी GEO टीवी को इंटरव्यू दे रही थी। कह रही थी - ‘दो मुल्कों की मोहब्बत के लिए मैं और मेरी इज्ज़त भी कुर्बान होती है, तो ये सर और ये मेरा जिस्म हाजिर है’ - फिर सरहद पार की बातें और हिंदुस्तान की मिट्टी का किस्सा। यह मेरे लिए रोशनी की दुनिया थी और अंधेरे का सबब। यहां मैं आंखें फाड़ कर अपनी खामोशी को और गहरा करने के अलावा कुछ नहीं कर पा रहा था। यक़ीनन जो दुनिया आपकी नहीं है, उस दुनिया में आपकी भाषा समझी भी नहीं जाएगी।
अचानक मैंने सुना, मीरा चिल्ला रही हैं - ‘एक गैर मुल्क मुझे बेपनाह इज्ज़त दे रहा है, और मेरा अपना ही मुल्क मेरे कपड़े फाड़ रहा है - आपको शर्म आनी चाहिए - आपने मुझको लेकर कंट्रोवर्सी क्रिएट की, फिर भी मैं आपको इंटरव्यू देने के लिए तैयार हुई - कम-अज-कम मेरे मुल्क में मेरी पूरी बात पहुंचाएं।’
(मालूम हो कि पाकिस्तानी न्यूज चैनल GEO ने ही मीरा के हिंदुस्तान में चुंबन दृश्य देनेवाली ख़बर को फ्लैश किया था, जिसके बाद पाकिस्तान में हंगामा और प्रदर्शन हुआ था)बहरहाल, GEO का संवाददाता सिमटा-सिकुड़ा ‘ज़रूर मीरा, ज़रूर’ ही कह पाया था कि मीरा यह ऐलान करती हुई वहां से निकल गयी कि मुझे बाथरूम की ज़ोरदार तलब हो रही है।
वह बार की चौड़ी गली से जाती हुई किसी नदी की तरह जा रही थी। पीले एहसासवाली उजली साड़ी जमीन से लिपट रही थी। वह उन्हें हाथों में समेटने की कोशिश करती हुई जा रही थी।
वह आयी, तब तक दूसरा सेट सीढ़ी के ऊपरवाली दुनिया में तैयार था। बीच रास्ते में मैंने टोका, ‘मीरा... मैं... अविनाश... आपने वक़्त दिया था...’
‘जी हां, याद आया, मैं अभी आयी...’
वह गयी और फिर कभी लौट कर नहीं आयी। मैंने सुना, ऊपर से उनकी आवाज़ आ रही थी, मेकअप... लिपिस्टिक...
‘जी हां, अब पूछिए सवाल...’
मगर सवाल के लिए जिस चैनल से अनुरोध किया जा रहा था, उसकी खूबसूरत-सी संवाददाता ने सवाल शुरू करना चाहा ही था कि मीरा ने कहा कि यह मुझे ठीक जगह नहीं लग रही है... कितना मजा आएगा, अगर हम बार की चौड़ी गली में ऊंची वाली कुर्सी पर बैठ कर बातें करें। संवाददाता ने ‘ओके’ कहा और कुछ लड़के कैमरे की उठा-पटक में मशगूल हो गये।
अचानक भट्ट साहब तशरीफ लाये। वह सीढ़ियों से टिक कर ऊपर मुखातिब हुए। मीरा को देखने की कोशिश करते हुए आवाज़ लगायी, ‘मीरा जी सलाम वालेकुम।’ शायद मीरा ने उनकी आवाज़ सुनी नहीं। भट्ट साहब ने दुबारे कहा, ‘सलाम वालेकुम मीरा जी!’
इस बार मीरा ने लगभग चौंकते हुए जवाब दिया, ‘भट्ट साब! कैसे हैं आप? प्लीज आप ऊपर आइए, मेरे पास बैठिए... इंटरव्यू में मैं नर्वस हो रही हूं...’
भट्ट साहब सीढ़ियों पर अपने क़दमों की तेज़ आहट के साथ ऊपर गये। मीरा उनसे लिपट गयीं। भट्ट साहब पीले एहसासवाली मीरा की श्वेत-धवल साड़ी की तारीफों के पुल बांधने लगे, ‘क्या बात है, आज तो कहर ढा रही हैं आप!’
मीरा ने कहा, ‘भट्ट साब! साढ़े तीन लाख की साड़ी है... पूरी कढ़ाई हाथों की है।’
भट्ट साहब जैसे चौंके, ‘अरे! ग़रीब हिंदुस्तान-पाकिस्तान जैसे मुल्क में साड़ी साढ़े तीन लाख की! मीरा जी, आपने तो कमाल ही कर दिया! अब तक तो आप मुझे नायिका ही लग रही थीं, अब तो पूरी की पूरी महंगी भी लग रही हैं! वाह, क्या बात है!’
मीरा ने कहा, ‘भट्ट साब! अच्छी लगती है न, इसलिए!’
भट्ट साहब नीचे आये और फोन पर लगातार मुलायमियत से भरी हुई चीख़ में व्यस्त हो गये। उन्हें फुर्सत हुई, तो मैंने आगे जाकर हाथ बढ़ाया, ‘भट्ट साब, मैं...’
उन्होंने गर्मजोशी से अपनी बांहों में मुझे लिया, ‘अरे, कबसे हैं आप?’
‘मुझे तकरीबन डेढ़ घंटे हो गये भट्ट साब, पर मीरा जी को फुर्सत ही नहीं मिल रही है।’
भट्ट साहब ने मीरा को पुकारा। मीरा सीढ़ी पर चुप क़दमों से उतर रही थीं। भट्ट साहब ने प्यार से झिड़की देते हुए मीरा से कहा, ‘मीरा जी, आपने इन्हें डेढ़ घंटे से बिठा रखा है और आप टीवी कैमरा के सामने बक-बक बक-बक किये जा रही हैं!’
मीरा ने कहा, ‘मैं क्या करूं भट्ट साब! जैसा आप कहिए मैं करती हूं!’ यह कह कर मीरा बार की चौड़ी गली में तैयार नये सेट की रोशनी में फैल गयीं।
भट्ट साहब मेरी ओर मुड़े, ‘अब आपको मीरा जी से नया समय लेना पड़ेगा। देखा आपने, वह कितनी व्यस्त हैं। अब वह स्टार हो गयी हैं। देखा, कितनी महंगी साड़ी पहन रखी है। इस मुल्क में बड़ी दिक्कत है। वैसे तो यह दूसरे मुल्कों की दिक्कत भी हो सकती है कि जब तक बताओ नहीं कि यह इतने दाम की चीज़ है, उसकी कीमत का पता ही नहीं चलता। नहीं! कीमती चीज़ का एहसास कराने के लिए उसकी कीमत की डीटेल्स बतानी ज़रूरी हो जाती है।’
मुझे लगा भट्ट साब मुझसे बातें कर रहे हैं। मैंने पूछा, ‘भट्ट साब, अब सारांश जैसी फिल्में क्यों नहीं बनतीं?’
भट्ट साहब झुंझलाये, ‘कोई नहीं देखेगा। कोई नहीं देखता। ‘हजारों ख्वाहिशें ऐसी’ कितने लोग देखने गये? आपने देखी?’
‘हां’
‘अलग हट कर है न!’ भट्ट साहब ने कहा, ‘न्न! सारांश नहीं चलेगी अब, कभी नहीं!’ और वह फिर किसी फोन पर मशगूल हो गये। शायद उधर से कोई बहुत करीब का था। कह रहे थे, ‘मादर... फोन ने मेरी जिंदगी बर्बाद कर दी है। सुबह से पचास बार लोगों को बता चुका हूं... बहन के... शोएब अख्तर और गैंगस्टर के बारे में... मादर... फिर भी पूछे जा रहे हैं, पूछे जा रहे हैं...’
मैंने हाथ हिला कर विदा लेने की कोशिश की। उन्होंने अपनी आंखें बहुत छोटी कर लीं। मैं डर गया। मैं डरना नहीं चाहता था, इसलिए बिना जवाब की आशा के मैं लकड़ी के उसी पहाड़ जैसे फाटक से बाहर निकल आया।
बाहर धूप थी, धूल थी, बस थी, पसीना था... और पसीना बहाती हुई ज़िंदगी थी।
OO
मैंने रात को घर आकर मीरा को एसएमएस किया। मीराबाई की पंक्ति को रोमन में टाइप करके : कागा सब तन खाइयो, चुन-चुन खाइयो मास; दो नैना मत खाइयो, मोहे पिया मिलन की आस! मीरा का जवाब तुरत आया। बल्कि वह जवाब नहीं था, सवाल था : tell me your name... मैंने उन्हें कोई उत्तर नहीं दिया। पर, मुझे रात में अच्छी नींद आयी।
तब का एड्रेस : 1104, ए विंग, धीरज रेसीडेंसी, गोरेगांव बस डिपो, ओशीवाड़ा, गोरेगांव (वेस्ट), मुंबई
Read MorePosted by Avinash Das at 11:44 AM 7 comments
Labels: कभी कभी की मुलाक़ात
Monday, June 2, 2008
परिवार में पहली बार सार्वजनिक
बचपन से लेकर मेरा सफ़र बहुत छुपा हुआ रहा है। मैंने पढ़ा, नहीं पढ़ा - किसी को मतलब नहीं था। कभी-कभी राय मिली, तो वो भले सबकी सुनी - लेकिन हमेशा वही पढ़ा, जो मेरे मन को कबूल था। कभी कॉमिक्स, कभी पराग। थोड़े बड़े हुए तो सुमित्रानंदन पंत, काका हाथरसी और नवीं के दिनों में पहली बार गोदान। ये रांची के दिन थे। दरभंगा में लघु पत्रिकाओं से दोस्ती हुई और वहीं पाश, धूमिल और राजकमल चौधरी कविताओं को पढ़ते हुए किसी ने मुझे टोका नहीं। घर में मेरा संवाद ही किसी से नहीं था। था भी तो मेरी तरफ से नहीं था। मुझे लोग करियर के बारे में सलाह देते, डांटते, पीटते - लेकिन एकतरफा सबको अनसुना करते हुए मेरी आवारागर्दी के किस्सों की निजी डायरी मोटी होती गयी है।Read More
बाबूजी की पीढ़ी में किसी से मेरी बात नहीं होती। हां-हूं। बस इतना ही। पापा से भी नहीं, जो आमतौर पर हम भाई-बहनों से काफी बातें करते हैं। उस वक्त पापा की पोस्टिंग विक्रमगंज में थी और मम्मी, छोटू, दीदी, बाबू पटना में रहते थे। मेरे लिए ये एक ऐसा आश्वस्त करने वाला ठिकाना था कि जिस दिन घर का खाना खाने का मन होता था - पहुंच जाता था। पहुंचना अक्सर रात में ही होता था, जैसा कि बाबू ने एक पोस्ट में मेरे बारे में लिखा भी है। वहां मुझे शास्त्रीय संगीत सुनने को मिलता था और छोटू होता, तो साथ में कैरम खेलता था और वो हर बार मुझे हरा देता था। पहले तो अक्सर होता था, बाद में बीआईटी सिंदरी पढ़ने चला गया था।
पर संवाद यहां भी न पापा से था, न मम्मी से, न बाबू से, न छोटू से। सिर्फ दीदी से मेरी बात होती थी। उम्र में मुझसे तीन-चार साल छोटी होगी, लेकिन हमारे पूरे परिवार में उसे सब लोग दीदी ही कहते हैं। उसका नाम रश्मि प्रियदर्शिनी है। अब शादी के बाद हो सकता है उसने अपने नाम में कुछ फेरबदल की होगी, मुझे नहीं बताया है। अब जब मैं याद करने की कोशिश करता हूं तो परिवार में संवादहीनता की भरी-पूरी स्थितियों के बीच एक रश्मि ही थी, जिससे मैंने ख़ूब बात की। सब तरह की बातें। सपनों और सिद्धांतों की बातें। अपने प्यार की बातें। अख़बार की बातें। उससे ख़ूब बहसें भी होती थीं, लेकिन ज़्यादातर मेरी बातों से सहमत हो जाती थी। मैं उसे अक्सर उकसाया करता था, जीवन यूं ही बर्बाद करने से कुछ नहीं होगा - तुम्हारी अंग्रेज़ी अच्छी है, कुछ कर लो। वह कहती थी कि हां, करूंगी।
पिछली बार, जब छोटू की शादी में वो मिली, तो मैंने उसे याद दिलाया था सब। उसकी प्यारी बेटी उसके साथ थी। उसने कहा कि जो वो नहीं कर सकी, अब उसकी बेटी करेगी। मैं इंतज़ार कर रहा हूं कि उसकी बेटी बड़ी हो और उसके साथ रहने का मौक़ा मिले तो उसके साथ भी बहसबाज़ी करूं।
रश्मि को मैं बताया करता था कि अख़बार में क्या हो रहा है, मुझे क्या करना है। वह घर में बताती होगी, तो लोगों को पता होगा - वरना मेरे अरमानों की ख़बर सिर्फ़ हमारे-उसके बीच ही रही होगी।
रश्मि का अध्याय छोड़ दें, तो अब तक सिर्फ़ मैं ही जानता रहा हूं कि मैंने पटना में कितने विरोध और झंझावातों के बीच पत्रकारिता की। प्रभात ख़बर में ट्रेनी सब एडिटर की जगह मिली थी और सिर्फ़ चार साल बाद उस अख़बार की साप्ताहिक पत्रिका का संपादक मुझे बनाया गया था और फिर दो साल बाद ही पूरे संस्करण का समन्वय संपादक।
पटना से लेकर रांची, दिल्ली, देवघर, मुंबई में कितने अवसर आये होंगे, जब प्रतिकूल परिस्थितियां मेरे आगे के सफ़र में दीवार बन कर खड़ी हो गयी हों। मैंने सब पार किया। कभी विरोध की परवाह नहीं की। थोड़ा विचलित ज़रूर हुआ, लेकिन तुरत संभल गया।
पहली बार बहुत विचलित हूं - क्योंकि अपने साथ हुए तमाम हादसों की ख़बर, जो सिर्फ़ मैं जानता था - आज मेरा परिवार भी जानता है। और वो भी ब्लॉग में अपनी सार्वजनिक उपस्थिति की वजह से।(अजीब है ये ब्लॉग भी। बाबू भी इतना शानदार लिख रहा है कि कई बार मुझे ताज्जुब होता है कि हमेशा ख़ामोश रहने वाला ये लड़का और अचानक बीच एक चुहल भरी ग़ैर साहित्यिक बात कहके ग़ायब हो जाने वाला ये लड़का इतनी संजीदगी से चीज़ों को देखता भी है! मैं उसके ब्लॉग पर टिप्पणी नहीं करता - क्योंकि कई बार मुझे समझ में नहीं आता, मैं क्या लिखूं। ज्ञानदत्त जी जब उसकी तारीफ़ करते हैं, तो बहुत खुशी होती है।)परसों ऑनलाइन था, तो छोटू चैट बॉक्स में आ गया। उसने पूछा कि हिंदी ब्लॉगिंग में ये क्या हो रहा है - आपके बारे में क्या-क्या लिखा जा रहा है - मुझे कुछ नहीं पता - पापा बता रहे थे। मैंने कुछ जवाब नहीं दिया। मैंने उसे लिखा कि किसी बेईमान आदमी की नीयत पर उंगली उठाने की सज़ा जो मिल सकती थी, मिल रही है।
मुझे पूरी उम्मीद है कि बात उसकी समझ में नहीं आयी होगी। मेरे उन तमाम दोस्तों की तरह, जो एक लड़ाई में मुझे अकेला छोड़ गये। अच्छा हुआ, वरना उन तमाम दोस्तों का चरित्र हनन करने की कोशिश भी की जाती। उनके विवेक ने उन्हें बचा लिया। विरोधियों का चक्रव्यूह तो मेरी नियति रही है - मुझे अकेले ही लड़ना है - और सोचे हुए सफ़र को पूरा करना है।
Posted by Avinash Das at 10:46 PM 8 comments
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Tuesday, May 13, 2008
भगवती के साथ एक दोपहर
होटल इंटरकांटीनेंटल। बाराखंभा रोड। नयी दिल्ली। ठीक एक दिन पहले इसी जगह भारतीय क्रिकेट टीम मौजूद थी। ऑस्ट्रेलिया से जीत का सेहरा बांध कर लौटी टीम ने यहीं कल शाम डिनर किया, जहां आज हम और भगवती साथ-साथ लंच कर रहे हैं। दो छोर पर मौजूद दो दुनिया एक जैसी चमकती फर्श पर खड़ी है। दिल्ली की पहली कतार के महंगे होटलों में से एक इंटरकांटिनेंटल अमीरी के शिखर पर तैरने वाली क्रिकेट टीम और राजस्थान के अलवर ज़िले में कभी मैला ढोने वाली भगवती और उस जैसी दर्जनों महिलाओं में कोई भेद नहीं कर रहा है, इससे मैं थोड़ा परेशान हो गया।
क्या ये उतना ही सच है, जितना दिख रहा है?
आज़ाद भारत में खुशहाल साम्यवाद की ये तस्वीर वैसी ही है, जैसी दिख रही है?
क्या भगवती और सचिन तेंदुलकर इस मुल्क के बराबर के नागरिक हैं?
मैं थोड़ा हैरान था और मेरी हैरानी से बेफिक्र भगवती ने कहा कि वो यहां पहले भी आ चुकी है। यानी जो दृश्य मेरे लिए अब भी असामान्य है, उसके लिए सामान्य हो चुका है।
भगवती का मायका दिल्ली है। बापूधाम में, जो धौलाकुआं से आगे पड़ता है। भगवती कहती है, मौर्या होटल - ताज होटल के पीछे मायके वालों की बस्ती थी। वाल्मीकि समाज की बस्ती। ये अब भी है, लेकिन अब मकानों-दुकानों में रौनक आ गयी है और पुरानी बस्ती लगती ही नहीं। पांच बहनों और एक भाई के बोझ को जल्दी-जल्दी उतारते हुए मां-बाप ने जहां-तहां सबकी शादी कर दी। भगवती की किस्मत ज़्यादा ख़राब निकली। अलवर में उसके ससुराल की औरतें मैला ढोती थीं। नयी-नवेली बहू ने ठीक से घूंघट भी नहीं उतारा था कि इस बदबूदार परंपरा के फटे हुए कपड़े पहनने के लिए ज़ोर दिया जाने लगा। भगवती को उबकाई आयी। खूब रोयी भगवती। भाग आयी दिल्ली। अपने मायके।
पिता थे कि नियति के लिखे पर भरोसा करते थे, लेकिन भाई को बहन की पीड़ा से ज़्यादा वास्ता था। उसने कहा कि अब अलवर मत जाना। भगवती रही लगभग साल भर - लेकिन समाज के उंगली उठाने से पहले ही भाई ने दुनियादारी समझी और भगवती से कहा कि बहन, अब जो किस्मत में मिला है, उसे तो लेना ही पड़ेगा। भगवती लौट आयी अलवर।
भगवती की कहानी को उसकी ज़ुबानी हम सुन रहे थे और छोटा-सा रिकॉर्डर ख़ामोशी से सब कुछ लिख रहा था। और भी लोग थे, लेकिन सबसे अनजान अपनी कहानी सुनाती हुई भगवती के चेहरे का भाव अच्छे-बुरे, खुशबू-बदबू वाले दिनों के हिसाब से बदल रहा था।
पति को लगता था कि मैला ढोना ठीक बात नहीं है, लेकिन सास-जेठानी का ज़ोर ज़्यादा था। वे कहते कि बच्चे होंगे और जब तक छोटे रहेंगे, तब तक तो ठीक - लेकिन जब बड़े होंगे तो एक आदमी की कमाई से गुजारा चलेगा नहीं। मैला ढोना अभी से शुरू करोगी, तो बाद में आसानी होगी। भगवती ने मिन्नत की, लेकिन सास को लगा मैला ढोने में क्या है - भगवती को न मना करना चाहिए, न मिन्नत। भगवती ने मन मार कर मैला ढोना शुरू किया। महीनों घर लौट कर उल्टी आती थी, बाद में आदत बन गयी। दुबली काया वैसी ही रही, क्योंकि इस जीवन से मन जुड़ नहीं पाया। पेट भर खाने की दिक्कत रही और मैल के छींटों से देह में बसती हुई बीमारी ससुराल में सबके लिए आम थी। भगवती ऐसी जगह ब्याहने के लिए मां-बाप को कोसती रही और सिर पर मैला ढोती रही।
उसी गंदगी में बच्चे हुए और बड़े होने लगे। भगवती को पता ही नहीं चला और उम्र गुज़रती रही। हमने उनकी उम्र पूछी, तो चुप हो गयीं। कभी किसी ने पूछा ही नहीं था। मेरा ख़याल था कि पचपन-साठ होगी। चेहरे से झांकती हुई झुर्रियों से तो ऐसा ही लगता था। मैंने एक बार फिर पूछा, तो उन्होंने कहा कि पता नहीं। होगा चालीस। थोड़ा अधिक भी हो सकता है। यानी ख़याल और हकीक़त में 15-20 साल का फर्क था। मुझे उम्मीद थी कि भगवती का ब्याह सत्तर के दशक में हुआ होगा, लेकिन उन्होंने कहा कि उनकी शादी के आसपास ही इंदिरा गांधी का मर्डर हुआ था। संजय गांधी को भाषण देते हुए जब उन्होंने सुना था, तब वो बच्ची थी।
बदनसीब भारत की उमर ऐसे ही ढली हुई नज़र आती है।
भगवती के तीन बच्चे हैं। एक बेटी, दो बेटा। बेटी की शादी दिल्ली कैंट में कर दी। दिल्ली में सिर पर मैला ढोने का रिवाज़ नहीं है। बेटी दूसरों के घरों में सफाई का काम करती है। मैला नहीं ढोती है। सुखी है। भगवती को संतोष है। लेकिन बेटे की शादी हुई, तो बहू ने छोड़ दिया। अदालत में तलाक के लिए अर्जी़ दे दी। बहू मैला ढोने वालों की बस्ती में नहीं रहना चाहती थी। वो दिल्ली वाली थी। तब की नहीं, जब की भगवती है। वो उस दिल्ली की लड़की थी, जहां आधुनिक संस्कृति अब बड़े घर से निकल कर सड़कों और निम्न मध्यवर्गीय बस्तियों तक में पहुंच चुकी है।
एक दिन किसी ने आकर कहा कि कोई पाठक जी आये हैं। कहते हैं, मैला ढोना पाप है। भगवती इस पाप से छुटकारा चाहती थी और पाठक जी ने भगवती को मुक्ति दिलायी। अब भगवती कहती है कि भगवान ने भेजा था उन्हें। ज़िंदगी की राह आसान कर देने वालों के लिए भगवान जैसा जुमला भारतीय ज़ुबानों में ख़ूब चलता है और भगवती भी ऐसी ज़ुबान में बोलने वाली एक भारतीय नागरिक थी - जिसके लिए कोई ऐसा काम इस देश में नहीं था, जो मैला ढोने के विकल्प के तौर पर उसके सामने होता।
भगवती विंदेश्वर पाठक की बात कर रही थी, जिन्होंने देश में सुलभ आंदोलन खड़ा किया और अब मैला ढोने वाली महिलाओं को नरक से निकालने की कोशिश में लगे थे।
मैंने ग़ौर किया कि जब विंदेश्वर पाठक के जीवन से जुड़े एक प्रसंग की नाट्य-प्रस्तुति होटल इंटरकांटीनेंटल के उस हॉल में चल रही थी, तो भगवती का चेहरा उदास था। एक सांड ने एक बच्चे पर हमला बोल दिया। बच्चे की मां मैला ढोती थी, इसलिए वो अछूत था। किसी ने उस बच्चे को नहीं बचाया। उसे कराहते हुए लोगों ने देखा, लेकिन किसी ने उसे अस्पताल नहीं पहुंचाया। वो मासूम एक निरीह मौत मारा गया। बिहार के बेतिया ज़िले का वो हादसा विंदेश्वर पाठक के बचपन का सबसे मार्मिक हिस्सा था।
भगवती ने कहा कि हमारे बच्चों के साथ अब ऐसा नहीं होगा। वे अब जहां कहीं भी जाती हैं, उन्हें उसी गिलास में पानी पीने के लिए लोग देते हैं, जिसमें वो खुद पीते हैं। भगवती अब सुलभ आंदोलन की एक कार्यकर्ता हैं। वो पापड़ बनाती हैं, वो बड़ी बनाती हैं। भगवती के हाथों की बनी ये चीज़ बाज़ार में बिकती है। भगवती को पैसे मिलते हैं। घर में टीवी है, फ्रीज़ है। थोड़े दिनों से फ़्रीज़ ख़राब हो गया है, जो ठीक हो जाएगा। अब ज़िंदगी से मलाल नहीं है भगवती को। मैला ढोने का काम बहुत पीछे छूट गया है।
लेकिन भगवती की जेठानी, ननद, देवरानी अब भी मैला ढोती है। भगवती के पास आती हैं। कहती हैं, हमें भी इस नरक से निकालो। मोहल्ले की दूसरी औरतें भी आती हैं। सुलभ में काम दिलाने को कहती हैं। भगवती कहती हैं, धीरज धरो। सुलभ सबका है। सबको काम मिलेगा।
ये भारतीय आशावाद है, भगवती जिसकी कायल है। नियति ने अच्छे घर से निकाल कर कठिन समय में ला खड़ा किया। वो दिन भी कट गये और अब खुशहाली है। बड़ा बेटा किसी के बाग़ की रखवाली करता है। अदालत में केस निपट जाएगा, तो दूसरी शादी भी हो जाएगी। छोटे बेटे को कुछ दिनों बाद कामकाज के लिए दिल्ली भेज देगी।
सुलभ ने जो संबल दिया है, उससे ज़िंदगी अब राजी-खुशी कटेगी।
होटल इंटरकांटीनेंटल का एयर कंडिशनर तेज़ था। मेरे पांव कांप रहे थे। हाथों में दाल-भात और तली हुई मछली से भरी प्लेट हिल रही थी। लेकिन भगवती नीले आसमानी रंग की साड़ी में खूब खिल रही थी। उसकी प्लेट में मेरी प्लेट से ज़्यादा मछली थी... और वो हिल भी नहीं रही थी!
Posted by Avinash Das at 3:08 PM 8 comments
Labels: कभी कभी की मुलाक़ात, यहां वहां जहां तहां
Saturday, March 29, 2008
सिनेमा हॉल के बाहर का सिनेमा आंखों में ज्यादा बसता है
(अधूरा गद्य जिसमें कहीं कहीं अधूरी कविताई)
कुछ वक्त कुछ बेवक्त मगर अक्सर तीन बजेRead More
या उससे थोड़ा पहले, जब धूप का ताप अधिक महसूस होता है
हमारी कालोनी के अंत में या शुरू में बने सिनेमा हाल से
(जो तब बना था, जब हॉल में बैठ कर कैम्पा कोला पीने वाले
सबसे अमीर होते थे)
निकलती हुई पसीने में भीगी भीड़ पर हमारा रिक्शावाला
घंटी बजाता रह जाता है
वरना अमूमन सुबह-शाम ऑफिस आने-जाने के वक्त में
आश्रम और आईटीओ-लक्ष्मीनगर पुल पर जो जाम लगते हैं...
ठीक वैसा ही जाम तो नहीं लगता
लेकिन इच्छा होती है - सिनेमा हाल से निकल कर लोग
सभ्यता से सड़क की बायीं तरफ एक कतार में क्यों नहीं चलते!
किसी का रिक्शा किसी की रेहड़
किसी की चुप्पी किसी के तेवर
कहीं नहीं दिखते हैं जेवर
तांबई चमक से तने हुए ललाट से कंधे पर टपकती
है पसीने की बूंद जिसमें मिली है एक कहानी, कुछ
मार-धाड़, बेपनाह रोशनी, तिलस्मी अंधेरा,
हांफते हुए चेहरे
सिनेमा हाल से निकल कर असीम शांति
मन में घुमड़ते हुए उल्लास से ज्यादा जल्दी में हम हैं
लेकिन मुख्य मार्ग की ट्रैफिक पुलिस यहां हमारा साथ देने कभी
नहीं आएगी वो यहां के लिए नहीं होती
हमारे मन में लगे जाम को हटाने के लिए नहीं होती है ट्रैफिक पुलिस
ये गरीब लोग हैं, जो अभी पुराने सिनेमा हॉल में बासी
फिल्में देख कर उनसे ज्यादा आनंद पाते हैं जो नई सदी के
सिनेमा हालों में आज की बनी फिल्म आज ही देख कर
गंभीर सावधानी के साथ निराश समीक्षक की तरह निकलते हैं
धोबी ने पतलून प्रेस की पहनी नयी कमीज
सौ रुपये में देख सिनेमा पटक रहे हैं खीझ
ये आदम की नयी नस्ल हैं इनकी यही तमीज
कहीं कहीं से क्रीज उखड़ गयी है अंधेरे में जानवर की तरह लड़की
को चूमते-चाटते दरअसल और लंबी चलनी थी फिल्म मगर
समय के संक्षिप्त इतिहास में अवसर का दरवाजा
फिलहाल बंद होने के बाद बुझे-बुझे मॉल से निकलते हुए
ये यूं ही लगते हैं निस्तेज, अनाकर्षक
घर पहुंच कर याद आता है रास्ता गुलाबी पॉलिस्टर सलवार-कमीज पर
उसी रंग की ओढ़नी जिसका कोर लहराता है पीछे-पीछे और उंगलियों से
छू लेने को जी चाहता है जब तक चेहरा सामने नहीं आता
तब तक हमारे मन में एक पूरी प्रेम कहानी बनती है और यूं ही बिगड़
जाती है वो कालोनी से सटे सीलन भरे कमरों वाले मोहल्ले की सबसे पतली
गली में चली जाती है
अगले हफ्ते किसी दिन नून शो से निकलते हुए ऐसे ही दिख जाएगी
होता यह है कि जो कहानी अंधेरा मारधाड़ सांसों की धौंकनी सिनेमा हॉल के अंदर
चलती है जहां करोड़ों का सिनेमा बनता है रुपयों में देखा जाता है और गणित का
हिसाब अरबों के ठिकाने लगता है
होता यह है
कि उस सिनेमा हाल के बाहर का सिनेमा
आंखों में ज्यादा बसता है
Posted by Avinash Das at 2:01 PM 10 comments
Labels: कविता की कोशिश
Thursday, March 13, 2008
आइए, रवीश को संबल दें, सहारा दें
रवीश पटना में हैं। पिछले कुछ दिनों से। बाबूजी की तबीयत ख़राब थी। वे अस्पताल में थे। रवीश का पिता से कुछ ज्यादा ही लगाव रहा है। आपस की बातचीत में वे अक्सर पिता के बारे में बताते रहे हैं। आज उनका मैसेज आया, Babuji cudnt Survive... एक दुखद संदेश। जाना ही पड़ता है एक दिन। सबको। लेकिन इस नियति को मान कर सहज शायद ही कोई होता है। बरसों के रिश्ते, बरसों की हार्दिकता को नियति के हवाले कैसे किया जा सकता है? रवीश इस वक्त दुखी हैं। बात कर पाने की स्थिति में नहीं हैं। शायद कोई भी नहीं होता होगा, ऐसे वक्त में। हम सब उनके दुख को सहारा दे सकते हैं। रवीश को संबल दे सकते हैं।Read More
Posted by Avinash Das at 7:20 AM 32 comments
Labels: अंतिम यात्रा
Tuesday, February 12, 2008
मानो राहू चंद्रमा पर चाबुक चलायो है
अबीर की दोपहर होती थी। सबसे अधिक खिलता था पीला रंग। वो हाथों से उड़ता था और बालों से गुज़रते हुए चेहरे को सहलाता था। गीतों के बीच उठती मादक स्वरलहरी इन अबीरों को बौरा देती थी। फिर ये पूरा गांव घूम आते थे। दरवाज़े-दरवाजे़। हमारे हाथ में ज़्यादा से ज़्यादा एक जोड़ी झाल होता था। होली में कोरस का सुर अपने उठान के वक्त लय और ताल नहीं देखता, लिहाजा बेसुरा झाल भी उसमें अपना अक्स खोज लेता है।Read More
हमने कायदे से कुछ भी बजाना नहीं सीखा। सिवाय गाल बजाने जैसे मुहावरे के, जो झूठ के अब तक के सफ़र में आज भी काम आ रहा है।
आकाशवाणी दरभंगा में एक कलाकार थे। आंखों की रोशनी बचपन से नहीं थी। हम वहां कैज़ुअल आर्टिस्ट थे। यूं भी अपने शहर की सांस्कृतिक आवोहवा में बेताल की तरह उड़ते रहने के दिन थे और हमारी हसरतें इतनी थीं कि सिनेमा हॉल को छोड़ कर दो-ढाई घंटे से ज़्यादा कहीं बैठने नहीं देती थीं। एक बार उन्होंने हारमोनियम सिखाने का वायदा किया। चाचा के पास बेतिया में हारमोनियम था, जिसे उठा कर हम दरभंगा ले आये थे। उनसे सरगम सीख पाये। सा सा सा सा निधा निधा प म प गग प म प गरे गरे नि रे सा। सा नि ध, ध म प, म प ग, प ग रे, ग रे सा।
फिर देशी शराब की दुकान पर हमें ले जाते। पौव्वा खरीदते और कहते - आओ रंग जमाएं। लेकिन उन दिनों वे हमें पीना नहीं सिखा पाये। हम कुछ और देर तक बचे रहना चाहते थे। बाद में तो शराब कुछ ऐसे शुरू हुई, मानो उससे जनम-जनम का अपनापा हो। लेकिन तब शराब नहीं पीने के कुबोध में ही हारमोनियम के मास्टर हमसे छूट गये।
शास्त्रीयता से लगाव हो गया था। इसलिए तो बेहद बूढ़े हो चले लल्ला की सभी ग्रामीण गीतों से पहले गायी गयी रुबाई हम ग़ौर से सुनने की कोशिश करते थे! वे फाग हों, चाहे चैती, गीत के प्रथमाक्षर से पहले वे साहित्यिक छंद पेश करते थे। छंद कुछ इस तरह होता था,नागरी नवेली अलबेली बृषभान जू केये छंद हमें इस भागती-दौड़ती दिल्ली में फिर से मिल गया। हमारे दफ्तर में एक वरिष्ठ साथी हैं, सत्येंद्र रंजन। आज वे ब्लॉगर भी हैं। इंक़लाब उनका ब्लॉग है। दो साल पहले मार्च में बनारस में हुए सिलसिलेवार धमाके के बाद एनडीटीवी की ओर से गंगा घाट पर आयोजित एक लाइव कंसर्ट में जब छन्नूलाल मिश्रा को सुना, उसके बाद उन्हें और सुनने के लिए बेचैन हो गया। उस कंसर्ट में छन्नूलाल जी ने गाया था, दिगंबर खेले मसाने में होली। छन्नूलाल जी के बहुत सारे गाने मिल गये, लेकिन श्मशान में शिव की होली नहीं मिली। मैं शुक्रगुज़ार हूं सत्येंद्र जी का कि उन्होंने हमें एक घंटे की एक सीडी उपलब्ध करवायी, जो एक लाइव कंसर्ट की निजी रिकॉर्डिंग है। ये बाज़ार में नहीं है। ये दुर्गा वंदना से शुरू होती है, ठुमरी, दादरा, चैती, फाग के बाद राम-केवट संवाद पर विराम लेती है। इन दिनों जब भी मैं एक घंटे से अधिक के सफ़र में होता हूं, मेरे कानों में स्पीकर इसी कंसर्ट को बार-बार सुनने के लिए लगा होता है।
जेवर जड़ाऊं नख शिख लो सजायो है
फूलन की सेजन पै सोय रही चंद्रमुखी
आयो ब्रजराज तहं औचक जगायो है
कहें कवि दयाराम भूषण अंग शोभत अति
दृगन की शोभा देखि मृगशावक लजायो है
तो वाही समय एक लट लटकी कपोलन पै
मानो राहू चंद्रमा पर चाबुक चलायो है
Posted by Avinash Das at 9:31 AM 5 comments
Labels: स्मृतियों की अनुगूंजें
Friday, January 11, 2008
अपनी भाषा की कविता के बारे में
हम किसी भी इलाक़ाई भाषा से किस तरह के साहित्य की अपेक्षा रखते हैं? इलाक़े की संवेदना, सामाजिक वैविध्य और देश की मुख्यधारा में इलाक़े का योगदान। क्या मैथिली कविता इन कसौटियों पर उतरती है? अगर मैं एक प्रवासी मैथिल हूं, तो क्या मुझे मेरे इलाक़े की कविता अपनी मिट्टी के महत्व से साक्षात्कार कराती है? मिथिला, जो बदल रहा है, गांवों में जिस तरह जीवन मूल्य बदल रहे हैं, उसकी आहट कविता दे रही है या फिर पुराने मुहावरों के खोल में घुसी हुई कविता सिर्फ स्मृतियों की चित्रकारी बनी हुई है? प्रकाशनों की कठिन डगर और साहित्य संपर्क की संकरी गलियों में टहलने के चलते मिथिला का काव्य संस्कार पूरी तरह हमारे सामने नहीं है, इसलिए मैं मैथिली कविता पर बोलने, बात करने के लिए सही अथॉरिटी नहीं हूं। लेकिन छोटे भूगोल वाली भाषाओं की सीमा और सहूलियत ये होती है कि इसमें हम बिना विशेषज्ञता के भी अपने अनुभव शेयर करते हैं। इसी सहूलियत का लाभ उठाते हुए मैथिली कविता पर थोड़ी बात करने का साहस कर रहा हूं।Read More
मेरे सामने नारायणजी की एक कविता है। मंदिर। कविता में मंदिर एक प्रतीक है, जिसकी धुरी पर बदले हुए गांव की कथा कही जा रही है। ताश खेलना हो तो मंदिर पर चलो, जुआ-चिलम करना है तो मंदिर पर चलो। पुराने सामाजिक मूल्य के हिसाब से जो अनैतिक है, उसका अड्डा पुराने समाज की सबसे पवित्र जगह बन रहा है। अंत में एक सवाल है कि ऐसा ही मंदिर अयोध्या में बनाने की भी कोशिश हो रही है। छोटी-सी कविता में नये मिथिला में बनते हुए सामाजिक मुहावरे भी हैं और एक ताक़तवर राजनीतिक टिप्पणी भी। ये कविता नयी सदी के पांचवें या छठे साल में लिखी गयी और अंतिका के अप्रैल 05 - मार्च 06 कें संयुक्तांक में छपी।
अब पचास साल पहले यात्री नागार्जुन की कविता देखिए। उमा भाइ छोड़लनि फुफकार। इस कविता में यात्री जी एक ऐसे अहम्मन्य आदमी की कथा कहते हैं, जो अपने विपक्षी का गला रेतने वाले को हज़ार रुपये इनाम देगा। इनाम ही नहीं हत्या के मुक़दमे की पैरवी के लिए दो हज़ार और देगा। वो आदमी बताता है कि उसका बेटा रेल में अफसर है और बेटी का ससुर रावण का अवतार है। इस पूरी घटना का गवाह बनने के लिए वो पूरे समाज को आमंत्रित भी करेगा। यानी समाज में उमा भाई जैसे लोगों के लिए जगह है और सम्मान भी। यात्री नागार्जुन की ये कविता मिथिला दर्शन के मई 1954 के अंक में छपी।
इन दोनों संदर्भ कविताओं के समय में पचास साल का फर्क है और ये दोनों ही कविताएं अपने समाज पर तीखा व्यंग्य है। जाति और गोत्र की पवित्रता-श्रेष्ठता गाने वाली काव्य-पीढ़ियों के बीच मैथिली कविता की ये धारा अभी भी अपनी पहचान के लिए संघर्ष कर रही है - क्योंकि आलोचना की समग्रता में इस धारा का मूल्यांकन अभी नहीं हुआ है।
मैथिली कविता में सौंदर्य के कुछ ख़ास ज़मीनी बिंब मिलते हैं, जो मुग्ध करते हैं। ये बिंब अभिजात संस्कार का अतिक्रमण करते हैं, मैथिली कविता को नया रास्ता दिखाते हैं। एक बानगी कुलानंद मिश्र की यही कविता है - ओ धान रोपैत हाथ सं सीउथ परक खढ़ कें हटौने रहय। थोड़े गिल्ल माटि ओकरा कपार पर टिकुलि जकां सटि गेल रहै। हम सोचने रही। एहने रमनगर मुद्रा मे हमरो आंगनवालीक फोटो बेजाय तं नहिये लगतनि। (धान रोपते हुए उसने अपनी मांग से एक खर (-पतवार) हटाया। थोड़ी गीली मिट्टी उसके माथे पर टिकुली की तरह चिपक गयी। हम सोचने लगे। ऐसे ही ख़ूबसूरत अंदाज़ में मेरी बीवी की तस्वीर भी बुरी नहीं लगेगी।)
ये कविताएं ऐसी हैं, जिसका रुप-बिंब, जिसके मुहावरे दूसरे भूगोल वाले पाठकों को भी समझने में आसानी होगी। लेकिन असल लोकभाषा का सबसे मौलिक रचाव भी मैथिली कविता में इस वक्त सक्रिय है, जिसको समझने के लिए मैथिल होना ज़रूरी है। हरेकृष्ण झा ऐसे ही प्रगतिशील मैथिली कवि हैं, जिनकी काव्य भाषा अनुवाद के लिहाज़ से सर्वाधिक जटिल है। लाल धामा, रसनचौकी, रागभास, कलमबाग, अकादारुन आदि-आदि जैसे शब्द अब मैथिली कविता के बाड़ से बाहर हो रहे हैं। लेकिन हरेकृष्ण झा ऐसे हज़ार-हज़ार शब्दों के माध्यम से नये मिथिला का कथा-काव्य रच रहे हैं। हरेकृष्ण झा लंबे समय तक जनांदोलनों में सक्रिय रहे हैं। ऐसी पृष्ठभूमि से आये लेखकों के बारे में आमतौर पर ये समझ होती है कि वे पुराने लोकमुहावरों और शब्दों से इसलिए परहेज करते हैं, क्योंकि उन्हें लगता है कि भाषाई अभिव्यक्ति के ये औजार सामंती बुनावट वाले हैं। मैथिली की बहुत सारी प्रगतिशील कविताओं में इस्तेमाल की गयी भाषाओं से भी ये धारणा बनी, जिसमें ऐसे नारे-मुहावरे आये, जो सामाजिक ताने-बाने में फिट नहीं बैठते थे। लेकिन हरेकृष्ण झा का शब्द संसार मिथिला की मिट्टी और हरित वन क्षेत्रों की कहानियों से भरा हुआ है, जिसमें आधुनिक जीवन मूल्य की क्रांतिकारी अनुगूंजें लोकगीत की तरह मौजूद हैं। पिछले चार दशक से हरेकृष्ण कविताएं लिख रहे हैं और अब जाकर उनका एक संकलन छप सका है।
ठीक उसी तरह विद्यानंद झा की कविताएं भी स्मृतियों के ऐसे आख्यान में हमें ले जाती हैं, जहां से मिथिला की रीति-नीति को समझने में आसानी होती है। उनकी कविताएं दार्शनिक अंदाज़ में एक मैथिल प्रवासी की दैनंदिन अनुभूतियों की ऐतिहासिक व्याख्या करती है। उनकी एक शृंखलाबद्ध कविता है, मृत्यु से पहले। कविता कहती है कि सामाजिक रूप से दिखती हुई निष्ठा दरअसल कितनी विसंगतियों का लेखा-जोखा होती है। कविता कहती है कि मरने से पहले आदमी की मानवीय कुंठाएं कैसे सहज रूप से प्रदर्शित होने लगती हैं। आखिरी वक्त के दारूण विवरण भी कविता को ख़ास बनाते हैं। जैसे एक बहुत ही सामान्य-सी दिखने वाली पंक्ति है, जो पूरी कविता में एक लय की तरह बंधी हुई है, आप देखें - उठैत सुरुजक संग / उठैत अछि बुरहीक राग / शांत होइत अछि / सांझ भेला पर / थाकि गेला पर। (उठते हुए सूरज के संग / उठता है बूढ़ी का राग / शांत होता है शाम होने पर / थक जाने पर) विद्यानंद झा के पास ऐसी कविताओं की लंबी फेहरिस्त है।
ये तमाम कवि अस्सी और दो हजार के बीच सक्रिय रहे हैं। लेकिन जो नवान्न हैं और नब्बे के बाद जिन्होंने अपने अस्तित्व से संघर्ष करती हुई मैथिली को अपनी अभिव्यक्ति के लिए चुना, उनकी कविताएं भी मैथिली को एक नया विस्तार देती हैं। इनमें से ज्यादातर कवि शहरी संवेदनाओं के साथ बड़े हुए, लेकिन जड़ों की तलाश की छटपटाहट इन्हें बार-बार ग्रामीण संवेदनाओं के सामने बौना सिद्ध करती रही। ये समस्याएं उन महिला रचनाकारों के लिए ज्यादा रही, जिनके लिए सामाजिक जकड़बंदी के चलते इन दोनों संवेदनाओं का ख़ास मतलब नहीं है। गांवों में उनके हिस्से पर्दा और दीवार है और शहर की आधुनिकता का दरवाज़ा भी उनके लिए ज़्यादा नहीं खुला है। मुक्ता की एक कविता प्रैक्टिकल इस बेचैनी को शब्द देती है - मेडिकल तैयारी लेल / बहरेबाक हमर रस्ता भेल बन्न / पिता कहलनि, नहि अछि बुत्ता / मर्यादा आ कुल-प्रतिष्ठा लग नत प्रतिभा / गामक माटि-पानि मे चासनी बनि घुलि रहल अछि / आ हम भविष्य तकैत क' रहल छी होम साइंसक प्रैक्टिकल... (मेडिकल की तैयारी लेल / बाहर जाने का रास्ता हुआ बंद / पिता ने कहा, नहीं है औकात / मर्यादा और कुल प्रतिष्ठा के आगे नत प्रतिभा / गांव की मिट्टी-पानी में चाशनी बन घुल रही है / और हम भविष्य को देखते हुए कर रहे हैं होम साइंस का प्रैक्टिकल)
अब ऐसे कवि ज्यादा हैं, जो मिथिला में नहीं रहते। रोजी-रोटी और दूसरी कई वजहों से वे परदेस में रहते हैं। मैथिली में लिखना उनके लिए परायों की भीड़ में मौलिक होने की छटपटाहट भी होती है, इसलिए वे लिखते हैं। उनमें हम एक भाषा का अपना प्रवाह न भी देखें, तो संवेदना और स्मृतियों का प्रवाह ज़रूर मिलेगा। कृष्णमोहन झा, सारंग कुमार, संजय कुंदन, कुमार मनीष अरविंद, धीरेंद्र प्रेमर्षि, रमण कुमार सिंह, नूतन चंद्र, कामिनी, विनय भूषण, अजित कुमार आजाद, पंकज पराशर अपनी भाषा में सक्रिय ऐसे ही प्रवासी कवि हैं। प्रगतिशील काव्यधारा में पलास के वन और नागफनी जैसे गैरमैथिल शब्द-बिंबों के प्रयोग वाली अनेकानेक कविताओं को छोड़ दें, तो ज़्यादातर कविताएं मिथिला को समझ रही हैं और अभिव्यक्त कर रही हैं।
लेकिन जिस एक कवि से मैं सबसे ज्यादा प्रभावित रहा हूं, वे हैं तारानंद वियोगी। वे दलित परिवार से आते हैं और उनकी कविता उन्नत सामाजिक चेतना से भरी-भरी होती है। अंतिका में ही उनकी कविता बाभनक गांव छपी, जो मिथिला के सामाजिक सत्ता-संघर्ष का इतिहास-वर्तमान इस तरह बताती है, जैसे कोई आदमी चीख़ रहा है, रो रहा है और सबसे दारुण दुख को अपनी अंतरात्मा से गा रहा है।
मैथिली कविता ऐसी ही असंख्य लय की तलाश में भारतीय भाषा साहित्य में एक ख़ास जगह बना रही है।
Posted by Avinash Das at 9:02 AM 3 comments
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Thursday, January 3, 2008
वो काग़ज़ की कश्ती वो बारिश का पानी!
नौजवानी में एक अजीब सी गुन-धुन होती है। आप आवारा हैं और मां-बाप का आप पर बस नहीं, तो आप या तो कुछ नहीं बनना चाहते या सब कुछ बन जाना चाहते हैं। जैसे एक वक्त था, जब मुझे लगता था कि मैं भारतीय सिनेमा का एक ज़रूरी हिस्सा बनूं। ठीक-ठीक ऐसा ही ख़याल नहीं होगा। ख़याल ये होगा कि या तो बड़ा अभिनेता बनूं या बड़ा निर्देशक। मुकेश की मोटी जिल्दवाली किताबें देख कर नाक से गाने वाले दिनों में ये भी ख़याल रहा होगा कि गायक ही बन जाऊं। जो चीज़ें हमें बांधती थीं, वो सब हम होना चाहते हैं।Read More
भारतीय समाज की फूटती हुई कोंपलों के ये ख़याल बताते हैं कि सिनेमा का उस पर कितना गहरा असर है। ये असर रंगों-रोशनियों का है, जो आमतौर पर हमारे समाज से अब भी ग़ायब हैं। गांवों में अगर बिजली गयी है, तो अब भी बहुत कम रहती है। देश के बड़े शहरों के अलावा जो बचे हुए शहर और कस्बे हैं, वहां तो पूरे-पूरे दिन और पूरी-पूरी रात बिजली होती ही नहीं।
वो दिन थे, जब चंदा जुटाया जाता था। हर घर से पांच-पांच रुपये की रक़म बंधती थी। साठ रुपये हो जाते थे, तो ब्लैक एंड व्हाइट टीवी और तीन सिनेमा के कैसेट आते थे। सत्तर रुपये में ब्लैक एंड व्हाइट टीवी रंगीन हो जाती थी। बैटरी ज़रूरी था। फिर जगमगाते बलखाते सीन के बीच बिना पलक झपके रतजगा होता था। ये रतजगा हममें से कइयों के बचपन का हिस्सा रहा होगा और अब हमारी स्मृतियों की सबसे बारीक, मुलायम परत पर वो रतजगा मौजूद है।
बचपन की फिल्मों के नाम नहीं होते। वे सिर्फ जादू होते हैं। हर नया सिनेमा तब एक वाक़या होता था। उन वाक़यों से हमारी मुठभेड़ हमें पैसे चुराने का साहस देती थी। हम पैसे चुरा कर फिल्में देखते थे और मार खाते थे और फिर फिल्में देखते थे। सिनेमा देखने जैसे नैतिक असमंजस ने कभी हमारे मनोबल को नहीं गिराया। इसके बावजूद नहीं, जब आठवीं की तिमाही परीक्षा में सात विषयों के अंक लाल घेरे में रंग कर सामने रख दिये गये।
उन दिनों, जब हमारी मासूम आंखें परदे को पूरा-पूरा देख भी नहीं पाती होंगी, बाबूजी पांच बहनों और तीन बेटियों के अपने परिवार को गंगाधाम दिखाने ले गये थे। दरभंगा के सोसाइटी सिनेमा हॉल में तब लोकभाषाओं की फिल्में लगती थीं। क्या देख पाये, क्या नहीं, अब याद नहीं। इतना ही याद है कि गांव में उसके बाद जहां कही चार लोगों के बीच मैं फंसता और वे मुझे गाना सुनाने को कहते, तो मैं सुनाता था- मोर भंगिया के मनाय दs हो भोले नाथ, मोर भंगिया के मनाय दs। इसके बाद थोड़ी मूढ़ी (फरही) देकर सब मुझे भगा देते थे।
गांव में नये पहुना का मान तब तक नहीं होता था, जब तक वे ससुराल के नौनिहालों के साथ बैठकर सिनेमा हॉल में कैम्पाकोला की पार्टी नहीं देते थे। ऐसी टोलियों में जाकर हमने मासूम देखी, सदा सुहागन देखी। नाम याद रखने लायक होश में आने से पहले देखी हुई फिल्मों के नाम ज़ेहन में नहीं हैं। चंद रोशनियों की खुदबुदाहट है, जो अब भी कभी-कभी अवचेतन में चमक उठती है।
हमारी बहनों का हीरो जीतेंद्र था। लिहाजा हम भी जीतेंद्र को अपना हीरो मानते थे। जबकि वे जीतेंद्र के ढलते हुए दिन थे। अमिताभ बच्चन कांग्रेस की राजनीति में उलझे हुए थे। डिस्को डांसर के बाद मिथुन चक्रवर्ती शबाब पर थे और गोविंदा का जलवा अब आने ही वाला था। आप सोचिए, भारतीय सिनेमा के इन चंचल चितेरों ने हमारी किशोर दुनिया को किस कदर बेचैन कर दिया होगा। हम नाचना चाहते थे। चीखना-चिल्लाना चाहते थे। लेकिन घर की धीर-गंभीर दीवारें आंखें तरेर कर देखती थीं। हम सहम कर कोर्स की किताबें ढूंढ़ने लग जाते थे।
लेकिन फिर भी अगला सिनेमा देखने के लिए सेंध मारने की तैयारी में जुट जाते थे।
Posted by Avinash Das at 4:42 AM 11 comments
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