इधर मेरा मोबाइल ग़ुम हो गया, तो सारे नंबर भी चले गये। उसमें विद्या बालन का नंबर भी था। उनका नंबर मैंने कहीं अलग से लिखा भी नहीं था। एक दिन अपने ऑफिस की टेल डायरी से मुझे विद्या बालन का नंबर मिला। पर इस नंबर को लेकर संशय था कि पता नहीं ये उनका सीधा नंबर है या वाया मीडिया वाला नंबर। मैंने एक एसएमएस किया, जिसका जवाब मिला नहीं। परसों अचानक इस नंबर से जवाब मिला - “हाय अविनाश, बुखार था इसलिए रिप्लाइ नहीं किया। सब ख़ैरियत? आप कैसे हैं?” और एक बार फिर विद्या से टूटी हुई बातचीत का सिलसिला शुरू हो पाया। मैं उन दिनों सुरेंद्र राजन जी के साथ रहता था। विद्या से मिलने की बात किसी बरिस्ता में तय हो रही थी। लेकिन एक शाम विद्या का एसएमएस आया कि सुबह घर पर आ जाइए, इत्मीनान से बात हो पाएगी। परिणीता की रिलीज़ के बाद उनका एक-एक मिनट क़ीमती था, इन्हीं में से मेरे लिए उन्हें वक्त निकालना था। एक ऐसी बातचीत के लिए, जिसका प्रस्तोता न कोई टीवी था, न कोई अख़बार, न ही कोई बड़ी फिल्मी पत्रिका। सुबह-सुबह हम पुराने जूते रास्ते में बूट पालिश से चमका कर चेम्बूर पहुंचे, विद्या के घर। एक मध्यवर्गीय बैठकखाने में सुबह की अलसायी चादरों से ढके गद्दे पर बैठे कुछ मिनट ही हुए कि एकदम से ताज़ा-ताज़ा विद्या सामने खड़ी हो गयीं। फिर हमने एक कोने में बैठ कर खूब बात की। विद्या ने अपनी मां से मुलाक़ात करवायी और घर में काम करने वाले लोगों से भी। वहां से लौटे, तो ये तय था कि फिर शायद ही विद्या हमें वक्त दे पाएंगी, क्योंकि परिणीता के बाद बॉलीवुड में उनके छा जाने की ज़मीन तैयार हो चुकी थी। लेकिन शाम को उनका एसएमएस आया कि सुबह की बातचीत अच्छी रही। वो बातचीत अब तक कहीं शाया नहीं हो पायी। अचानक पुरानी सीडीज़ चेक करते हुए मिल गयी, तो लगा कि इसे साझा करना चाहिए। बातचीत वैसी की वैसी रखी जा रही है, जैसी हुई। कोई एडिटिंग नहीं। उम्मीद है, विद्या को भी इस बातचीत की याद परिणीता के दिनों में ले जाएगी।